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रघुवीर सहाय की कविताओं में व्यक्त राजनीतिक दृष्टि

रघुवीर सहाय की कविताओं में व्यक्त राजनीतिक दृष्टि

परिचय

रघुवीर सहाय (1929-1990) हिंदी साहित्य में समकालीन संवेदनाओं के प्रखर कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनकी कविताएँ स्वतंत्र भारत की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सच्चाइयों को निर्ममता से उजागर करती हैं। सहाय की कविता का प्रमुख स्वर राजनीतिक सजगता और सत्ता-व्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि से भरा है। वे लोकतंत्र के भीतर की विसंगतियों, सत्ता की निरंकुशता, और साधारण मनुष्य के संघर्षों को अपनी कविताओं में प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविताओं में राजनीतिक दृष्टिकोण व्यापक समाज के प्रति उत्तरदायित्व, नैतिकता, और न्याय चेतना से ओतप्रोत है।

राजनीतिक दृष्टि का स्वरूप

सहाय की कविताओं की राजनीतिक दृष्टि का स्वरूप बहुआयामी है। वे सत्ता और राजनीति को केवल चुनावी तंत्र या राजनीतिक दलों तक सीमित न कर, बल्कि उसके सामाजिक और मानवीय पहलुओं को उजागर करते हैं। उनकी कविताओं में आम आदमी की समस्याओं, राजनीतिक पाखंड, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, और हिंसा जैसे मुद्दे बार-बार उभरते हैं।

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लोकतंत्र की आलोचना

सहाय लोकतंत्र के मुखौटे के पीछे छिपे तानाशाही स्वभाव की तीखी आलोचना करते हैं। उनकी कविताओं में लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज में न्याय और समानता के वास्तविक आदर्शों से है। अपनी प्रसिद्ध कविता “रामदास” में वे साधारण आदमी की त्रासदी को दर्शाते हुए कहते हैं कि लोकतंत्र में वोटर की स्थिति कितनी दयनीय और उपेक्षित है। कविता की यह पंक्ति देखिए:

“लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हँसे
और रामदास मर गया।”

यहाँ ‘रामदास’ साधारण नागरिक का प्रतीक बन जाता है जो सत्ता की उपेक्षा से मरता है, जबकि लोकतंत्र के पहरेदार सत्ता में बैठे लोग उसकी मृत्यु पर व्यंग्य करते हुए दिखाई देते हैं।

सत्ता की क्रूरता और जनसंघर्ष

सहाय की कविताओं में सत्ता की अमानवीयता और क्रूरता की पहचान प्रमुख है। सत्ता, व्यवस्था और राजनीति के प्रति वे हमेशा प्रश्न खड़े करते रहे हैं। वे मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता जनता की आकांक्षाओं को कुचलने का माध्यम बन चुकी है। कविता “हँसो, हँसो जल्दी हँसो” में वे कहते हैं कि सत्ता के लोग जनता की पीड़ा पर हँस रहे हैं, और लोगों को भी हँसने के लिए मजबूर कर रहे हैं:

“हँसो, जल्दी हँसो
हँसो, नहीं तो कोई हादसा हो जाएगा।”

इस पंक्ति में एक गहरा राजनीतिक व्यंग्य है। सत्ता की निरंकुशता को व्यक्त करने के लिए सहाय यहाँ हँसी को मजबूरी बनाकर दिखाते हैं।

राजनीतिक पाखंड का पर्दाफाश

सहाय की कविताओं में राजनीतिक पाखंड और झूठ को बेनकाब करने का एक तीखा प्रयास मिलता है। उनकी कविता “अधिनायक” इसका उत्तम उदाहरण है, जिसमें वे लोकतांत्रिक व्यवस्था की विडंबना को बताते हुए कहते हैं:

“राष्ट्रगीत में कौन वह
भारत भाग्य विधाता है?
फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है?”

यहाँ सहाय सत्ता प्रतिष्ठानों के दोहरे मापदंडों को दिखाते हैं कि राष्ट्र का असली निर्माता गरीब मजदूर है, जिसे सत्ता अनदेखा कर देती है, जबकि अधिनायक स्वयं को भाग्यविधाता घोषित करता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न

रघुवीर सहाय की कविताओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सत्ता द्वारा अभिव्यक्ति के दमन का प्रश्न बार-बार उठता है। उनकी कविताओं में साहित्यकार, पत्रकार, और बुद्धिजीवी वर्ग की आवाज़ को दबाए जाने के विरुद्ध प्रतिरोध स्पष्ट दिखता है। सहाय स्वयं एक पत्रकार थे और प्रेस की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। वे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न को निरंतर उठाते हैं।

साधारण आदमी की त्रासदी

सहाय की कविताओं में एक साधारण व्यक्ति का संघर्ष, असुरक्षा और असहायता मुख्य विषय के रूप में सामने आते हैं। उनकी कविता “आत्महत्या के विरुद्ध” में, वे एक गरीब किसान की आत्महत्या के विरुद्ध एक आवाज़ उठाते हुए उसकी मौत को राजनीतिक और सामाजिक विफलता के रूप में दर्ज करते हैं। कविता में वे समाज और राजनीति की विफलताओं को गंभीरता से उभारते हैं:

“उसने मरने से पहले एक बार ज़रूर सोचा होगा
कि नहीं मरूँगा
लेकिन कौन था जो उसे रोक लेता?”

यहाँ कविता में स्पष्ट है कि सत्ता और व्यवस्था में साधारण व्यक्ति को बचाने की कोई मंशा या योजना ही नहीं है।

राजनीतिक परिवर्तन की आकांक्षा

सहाय केवल आलोचना और निराशा तक सीमित नहीं रहते, बल्कि राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव की आकांक्षा भी व्यक्त करते हैं। वे एक बेहतर राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था की कल्पना करते हैं। उनकी कविता में राजनीतिक चेतना महज़ व्यवस्था की आलोचना नहीं है, बल्कि एक सक्रिय हस्तक्षेप भी है। वे परिवर्तन के पक्ष में लोगों की भागीदारी और लोकतांत्रिक चेतना के प्रसार पर जोर देते हैं।

भाषा का राजनीतिक उपयोग

सहाय की कविताओं में भाषा स्वयं एक राजनीतिक औजार है। उनकी भाषा व्यंग्यात्मक, सीधी और नुकीली है। वे सत्ता के खोखलेपन को स्पष्ट करने के लिए सरल और प्रभावी शब्दों का प्रयोग करते हैं। कविता की भाषा आम बोलचाल की है ताकि सामान्य जनता की राजनीतिक चेतना को जगा सके। भाषा का यह चयन स्वयं राजनीतिक चेतना के प्रसार का एक उपकरण है।

निष्कर्ष

रघुवीर सहाय की कविताओं की राजनीतिक दृष्टि स्वतंत्र भारत की व्यवस्था की विसंगतियों और विफलताओं के विरुद्ध गहरा असंतोष व्यक्त करती है। लोकतंत्र के मुखौटे, सत्ता की अमानवीयता, सामाजिक अन्याय, और राजनीतिक पाखंड का पर्दाफाश करते हुए, उनकी कविता सत्ता के मानवीयकरण की पक्षधर है। सहाय की कविताएँ अपने समय की राजनीति का आईना हैं जिसमें व्यवस्था की निरंकुशता और जनता के संघर्ष एक साथ परिलक्षित होते हैं। वे एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में राजनीतिक दृष्टि सिर्फ सत्ता-विरोध नहीं, बल्कि समाज को जागरूक करने और सत्ता की जिम्मेदारी तय करने का एक मजबूत माध्यम भी बन जाती है।

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