पृथ्वीराज रासो की भाषा

पृथ्वीराज रासो की भाषा: हिन्दी साहित्य के आदिकालीन महाकाव्यों में ‘पृथ्वीराज रासो’ का विशेष महत्व है। इसकी रचना महान कवि चंदबरदाई ने की थी, जो पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि थे। यह महाकाव्य भाषा, शैली, और सांस्कृतिक ऐतिहासिक महत्व के कारण सदियों से आलोचकों का ध्यान आकर्षित करता रहा है। इस लेख में हम पृथ्वीराज रासो की भाषा के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

परिचय: पृथ्वीराज रासो क्या है?

पृथ्वीराज रासो हिंदी साहित्य का वह महाकाव्य है जो पृथ्वीराज चौहान के जीवन पर आधारित है। इसकी भाषा अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिवेश को प्रतिबिंबित करती है। इसकी भाषा ब्रज, राजस्थानी, अपभ्रंश और तत्कालीन अन्य बोलियों के सम्मिश्रण से निर्मित हुई है।

पृथ्वीराज रासो की भाषा का स्वरूप

पृथ्वीराज रासो की भाषा शुद्ध हिंदी न होकर तत्कालीन अनेक लोकभाषाओं का मिश्रित रूप है। इसे मुख्यतः अपभ्रंश और राजस्थानी भाषा के मिश्रण वाली काव्य भाषा के रूप में देखा जाता है। इसकी भाषा अत्यंत सरल होने के साथ-साथ प्रभावशाली और गेय भी है। इसी कारण यह जन-जन तक पहुँच सकी।

भाषाई विविधता का प्रभाव

इस महाकाव्य की भाषा में राजस्थानी, ब्रज, अवधी, और अपभ्रंश जैसी भाषाओं का सुंदर मेल दिखाई देता है। भाषाई विविधता इसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण रही। विभिन्न प्रांतों में सहज समझी जा सकने वाली इस भाषा ने क्षेत्रीय सीमाओं को भी लांघा।

शब्द चयन एवं अर्थ-गांभीर्य

चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में सरल, सहज एवं लयात्मक शब्दों का प्रयोग किया। राजपूताना के वीर-रस प्रधान शब्दों के साथ-साथ श्रृंगार रस से युक्त वाक्यों का भी बखूबी प्रयोग हुआ है। अर्थ-गांभीर्य और काव्य सौंदर्य इसकी भाषा की विशेषता है।

शैलीगत विशेषताएँ

पृथ्वीराज रासो की भाषा का सौंदर्य उसकी शैलीगत विशेषताओं में निहित है। इसके शैलीगत पहलू इसे कालजयी बनाते हैं।

छंद और अलंकारों का प्रयोग

पृथ्वीराज रासो मुख्यतः छप्पय छंद में रचित है। इसके अतिरिक्त दोहा, चौपाई, सवैया, कवित्त जैसे छंदों का भी प्रयोग हुआ है। अनुप्रास, यमक, रूपक, उपमा जैसे अलंकारों से काव्य भाषा सजीव और मनोरम हुई है।

संवादों की भाषा

रासो की भाषा में पात्रों के संवाद विशेष रूप से रोचक और आकर्षक हैं। पृथ्वीराज और संयोगिता के संवाद काव्य के सर्वाधिक प्रसिद्ध अंश हैं, जो अपनी भाषाई सरलता और भाव प्रवणता के कारण पाठकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ते हैं।

भाषागत सौंदर्य और काव्यात्मकता

पृथ्वीराज रासो की भाषा सहज होते हुए भी अत्यंत काव्यात्मक और संगीतमय है। इसकी संगीतमयता इसके वाचन और गायन की परंपरा को जीवित रखे हुए है। यही कारण है कि आज भी राजस्थान के लोकगीतों और लोकसाहित्य में इसकी भाषा का प्रभाव दिखता है।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व

पृथ्वीराज रासो की भाषा केवल साहित्यिक ही नहीं, ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इसकी भाषा तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति का आईना है। तत्कालीन युद्ध-वर्णन, उत्सवों, रीति-रिवाजों और धार्मिक मान्यताओं की जानकारी इस भाषा के माध्यम से सहज उपलब्ध हो जाती है।

लोकभाषा का प्रभाव

इस महाकाव्य की भाषा में लोकभाषा का अत्यधिक प्रभाव दिखाई देता है। लोक शब्दावली का प्रयोग इसे ग्रामीण जीवन और लोक-संस्कृति के नजदीक ले आता है। इसका लोकभाषा से जुड़ाव इसे सहज और प्रामाणिक बनाता है।

पृथ्वीराज रासो की भाषा पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण

विभिन्न आलोचकों ने पृथ्वीराज रासो की भाषा को लेकर अलग-अलग मत व्यक्त किए हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, इसकी भाषा अपभ्रंश से विकसित होकर हिन्दी के आरंभिक स्वरूप को दर्शाती है, जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे एक ऐसी मिली-जुली भाषा बताते हैं जिसमें लोक और शिष्ट दोनों तत्वों का मेल है।

निष्कर्ष

पृथ्वीराज रासो की भाषा अपने आप में एक संपूर्ण अध्ययन का विषय है। इसकी भाषा का स्वरूप, विविधता, और काव्यात्मक शैली इसे हिंदी साहित्य के आदिकालीन काव्यों में विशेष स्थान दिलाते हैं। भाषा की सरलता, शैली की विविधता, और छंद-अलंकार का सधा हुआ प्रयोग इसे आज भी महत्वपूर्ण और रोचक बनाए हुए है।

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FAQs:

1. पृथ्वीराज रासो किस भाषा में लिखा गया है?
यह मुख्यतः अपभ्रंश, राजस्थानी और ब्रज भाषाओं के मिश्रण से बनी भाषा में लिखा गया है।

2. पृथ्वीराज रासो के लेखक कौन हैं?
पृथ्वीराज रासो के लेखक पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदाई हैं।

3. इसकी भाषा की प्रमुख विशेषता क्या है?
भाषाई सरलता, छंदबद्ध शैली और लोक-प्रभाव इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं।

4. इसमें किन छंदों का प्रयोग हुआ है?
छप्पय, दोहा, चौपाई, कवित्त जैसे छंदों का प्रमुखता से प्रयोग हुआ है।

 

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