लोकमंगल की अवधारणा

लोकमंगल की अवधारणा: लोकमंगल भारतीय दर्शन, साहित्य और सांस्कृतिक चेतना का एक ऐसा मूल तत्व है जो समष्टिगत कल्याण, नैतिक चेतना, और सामाजिक समरसता को आधार बनाता है। ‘लोक’ का अर्थ है जनता या समाज, और ‘मंगल’ का अर्थ है कल्याण या शुभता। इस प्रकार, लोकमंगल का तात्पर्य है—समाज का सर्वांगीण कल्याण।

यह अवधारणा केवल वैचारिक नहीं, बल्कि साहित्यिक रचनाओं, धार्मिक ग्रंथों और लोकजीवन में गहराई से रची-बसी है। यह लेख लोकमंगल को दार्शनिक, साहित्यिक और सामाजिक दृष्टियों से विस्तार से समझाता है।

1. लोकमंगल का शाब्दिक और व्युत्पत्तिगत अर्थ

लोकमंगल’ शब्द दो भागों से बना है—लोक + मंगल

  • लोक का अर्थ होता है ‘जनमानस’, ‘समाज’, या ‘संपूर्ण जीवमात्र’।
  • मंगल का अर्थ है ‘कल्याण’, ‘सुख’, ‘शांति’, या ‘शुभता’।

इस प्रकार, लोकमंगल का सार है—समाज या लोक का कल्याण, न्यायपूर्ण व्यवस्था, समरस जीवन और धर्ममूलक आचरण

2. लोकमंगल का दार्शनिक आधार

भारतीय दर्शन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के साथ-साथ समाज के कल्याण को भी परम उद्देश्य माना गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।”
अर्थात्, श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं, वही समाज द्वारा अपनाया जाता है।

धर्म का मूल उद्देश्य भी समाज की रक्षा और कल्याण ही है। यदि धर्म का पालन व्यक्तिगत हित तक सीमित हो जाए, तो वह संकीर्ण बन जाता है। वेदों, उपनिषदों और स्मृतियों में भी लोकमंगल को मूलभूत मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है।

3. साहित्य में लोकमंगल की अवधारणा

भारतीय साहित्य, विशेष रूप से भक्ति काल, रीति काल, और आधुनिक युग के साहित्य में लोकमंगल एक केन्द्रीय उद्देश्य रहा है।

(क) तुलसीदास का लोकमंगल

तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना में बार-बार लोकमंगल का उल्लेख किया है। उनकी दृष्टि में भगवान राम का चरित्र केवल धार्मिक कथा नहीं, बल्कि लोक के लिए आचरण की प्रेरणा है।

“भवनी बिस्व कल्याणकारक।”
अर्थात्, रामकथा लोक का कल्याण करने वाली है।

(ख) कबीर, रहीम और सूरदास

  • कबीर का साहित्य सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों और जातिवाद के विरुद्ध रहा।
  • रहीम ने नीति और सहृदयता के माध्यम से समाज को सही दिशा दी।
  • सूरदास की भक्ति में भी दया, करूणा और सामाजिक सौहार्द प्रमुख रहे।

(ग) आधुनिक साहित्य

  • भारतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, और निराला जैसे साहित्यकारों ने साहित्य को समाज परिवर्तन का माध्यम माना।
  • प्रेमचंद ने लोकमंगल के लिए यथार्थवाद को अपनाया।
  • निराला ने सामाजिक अन्याय, स्त्री-विमर्श और निम्न वर्ग की व्यथा को काव्य में स्थान दिया।

4. लोकमंगल और भक्ति साहित्य

भक्ति आंदोलन स्वयं में एक लोकमंगलकारी विचारधारा था। यह आंदोलन जात-पात, बाह्याचार और ब्राह्मणवाद के विरोध में था और समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को ईश्वर तक पहुँचाने का माध्यम बना।

  • नानक, नामदेव, रैदास जैसे संतों का कार्य ‘जनसेवा’ और ‘आध्यात्मिक समानता’ की भावना को जागृत करना था।
  • लोकभाषा में रचना कर उन्होंने साहित्य को आमजन तक पहुँचाया।

5. लोकमंगल का सामाजिक महत्व

(क) सामाजिक समरसता

लोकमंगल सामाजिक भेदभाव को मिटाकर सभी वर्गों को समान मान्यता देने की प्रेरणा देता है।

(ख) नारी सम्मान

जहाँ एक ओर समाज में नारी को हेय दृष्टि से देखा जाता था, वहीं लोकमंगल की अवधारणा नारी को सम्मान और स्वतंत्रता का अधिकार देती है।

(ग) धर्म का मानवीय पक्ष

धर्म को केवल पूजा-पाठ तक सीमित न रखकर उसे मानवीय सेवा, दया, और सहिष्णुता से जोड़ना ही लोकमंगल है।

6. आधुनिक युग में लोकमंगल की आवश्यकता

वर्तमान समय में समाज असमानता, सांप्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। ऐसे में लोकमंगल की अवधारणा फिर से प्रासंगिक हो जाती है:

  • साहित्य को फिर से जनजागरण का माध्यम बनाना होगा।
  • धर्म और दर्शन को केवल तर्क नहीं, सरोकार बनाना होगा।
  • व्यक्ति को ‘मैं’ से ऊपर उठकर ‘हम’ की चेतना में लाना होगा।

7. लोकमंगल और गांधी विचार

महात्मा गांधी के संपूर्ण चिंतन का मूल भी लोकमंगल ही था।

  • उनका “सर्वोदय” आंदोलन लोकमंगल की अवधारणा का ही व्यापक स्वरूप था।
  • “अंत्योदय” अर्थात् अंतिम व्यक्ति का कल्याण—यही लोकमंगल का सच्चा लक्ष्य है।

8. लोकमंगल और लोकसंस्कृति

लोकगीत, लोककथाएँ, नाट्य, मेले, त्योहार — सभी में लोकमंगल की भावना निहित होती है।

  • फसल के गीत हों या विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले मंगलाचरण — इन सबमें समृद्धि, शांति और सौहार्द की कामना की जाती है।
  • ग्रामीण भारत में आज भी लोकमंगल की जड़ें मजबूत हैं।

9. लोकमंगल की समकालीन व्याख्या

आज के वैश्विक युग में लोकमंगल केवल सीमित समाज के लिए नहीं, बल्कि वैश्विक कल्याण (Global Welfare) का रूप ले चुका है। अब यह आवश्यकता बन चुकी है कि:

  • साहित्य केवल मनोरंजन न होकर समाज-निर्माण का माध्यम बने।
  • शिक्षा, स्वास्थ्य, और विज्ञान भी लोककल्याण की दृष्टि से कार्य करें।
  • तकनीक और नीतियाँ मानवता की सेवा में लगें।

निष्कर्ष

लोकमंगल केवल एक आदर्श नहीं, बल्कि एक जीवन दृष्टि, एक सामाजिक दायित्व और एक साहित्यिक उत्तरदायित्व है। यह अवधारणा हमें सिखाती है कि किसी भी रचना, विचार या आचरण का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत लाभ नहीं, बल्कि समाज का सामूहिक कल्याण होना चाहिए।

तुलसी से लेकर प्रेमचंद तक, गांधी से लेकर आज के समाज सुधारकों तक—सभी ने लोकमंगल को ही अपने कार्य का मूल उद्देश्य माना है। अगर साहित्य, धर्म, दर्शन, राजनीति और तकनीक—सबका उद्देश्य लोकमंगल बन जाए, तो एक समरस, शांतिपूर्ण और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना निश्चित है।

FAQs: लोकमंगल की अवधारणा

प्रश्न 1: लोकमंगल का क्या अर्थ है?
उत्तर: लोकमंगल का अर्थ है ‘समाज का सामूहिक कल्याण’, जिसमें सभी वर्गों, जातियों और व्यक्तियों के हित का विचार होता है।

प्रश्न 2: साहित्य में लोकमंगल की भूमिका क्या है?
उत्तर: साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज सुधार और जन-जागरण भी है। लोकमंगल इसी दृष्टिकोण से साहित्य का मूल तत्व है।

प्रश्न 3: तुलसीदास की रचनाओं में लोकमंगल कैसे प्रकट होता है?
उत्तर: तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ में राम को लोकनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो धर्म, न्याय और समरसता का प्रतीक हैं।

प्रश्न 4: क्या आधुनिक समाज में लोकमंगल की अवधारणा प्रासंगिक है?
उत्तर: हाँ, वर्तमान समय में सामाजिक असमानता, हिंसा और अराजकता के समाधान के लिए लोकमंगल का दृष्टिकोण अत्यंत आवश्यक है।

प्रश्न 5: क्या भक्ति आंदोलन लोकमंगलकारी था?
उत्तर: बिल्कुल। भक्ति आंदोलन ने जातिवाद, ऊँच-नीच और धार्मिक कट्टरता को चुनौती देकर समाज को समरसता की ओर अग्रसर किया।


यदि आप इस लेख का PDF, प्रेजेंटेशन या अध्ययन-सहायक सामग्री (notes) चाहें, तो बताइए — मैं तुरंत तैयार कर सकता हूँ।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top