महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना-दृष्टि: हिंदी साहित्य के इतिहास में महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) को एक युगप्रवर्तक आलोचक, साहित्यिक विचारक और समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है। वे केवल एक संपादक या लेखक ही नहीं, बल्कि एक ऐसे चिंतक थे, जिनकी आलोचना दृष्टि ने पूरे हिंदी साहित्य को एक सुसंगठित दिशा दी। उनकी आलोचना दृष्टि में तार्किकता, नैतिकता, और सामाजिक चेतना की त्रिवेणी दिखाई देती है।
द्विवेदी युग का साहित्यिक परिप्रेक्ष्य
19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी के प्रारंभ में हिंदी साहित्य एक संक्रमण काल से गुजर रहा था। यह समय भारतेंदु युग के बाद का था, जहाँ कविता और गद्य में भावुकता अधिक थी, परंतु सैद्धांतिक आलोचना या साहित्यिक अनुशासन की कमी थी। ऐसे समय में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने न केवल साहित्य को विचारधारा से जोड़ा, बल्कि साहित्य में नैतिक अनुशासन, भाषायी शुद्धता, और आलोचनात्मक विवेक की स्थापना की।
आलोचना दृष्टि की विशेषताएँ
1. नैतिक मूल्यबोध
द्विवेदी जी की आलोचना दृष्टि का केंद्र बिंदु था – नैतिकता। उनका मानना था कि साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं, मार्गदर्शक भी होना चाहिए। उन्होंने साहित्य को नैतिक सुधार का साधन माना। उनके अनुसार, यदि साहित्य समाज को दिशा नहीं दे रहा है तो वह केवल मनोरंजन बनकर रह जाएगा।
[news_related_post]2. आधुनिक चेतना
उन्होंने साहित्यिक आलोचना को सिर्फ भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक तार्किक प्रक्रिया माना। द्विवेदी जी ने साहित्य को आधुनिक दृष्टिकोण से देखा। वे विज्ञान, इतिहास और समाजशास्त्र जैसे विषयों की समझ को आलोचना में स्थान देते थे। यह दृष्टिकोण उस समय के लिए क्रांतिकारी था।
3. भाषिक अनुशासन
द्विवेदी जी ने हिंदी भाषा की शुद्धता, सरलता और सुस्पष्टता को अत्यधिक महत्व दिया। उन्होंने ब्रज और अवधी की जगह खड़ी बोली को प्रमुखता दी, जिससे हिंदी साहित्य को एक समरूप भाषा मिली। उनकी आलोचना में भाषा की शुद्धता एक निर्णायक तत्व के रूप में उभरती है।
4. सामाजिक उत्तरदायित्व
वे साहित्य को सामाजिक बदलाव का साधन मानते थे। उन्होंने कुरीतियों, अंधविश्वासों और जातिगत भेदभाव के विरोध में कलम चलाई। उनका आलोचनात्मक दृष्टिकोण केवल साहित्य तक सीमित नहीं था, बल्कि समाज सुधार से भी गहराई से जुड़ा था।
5. संतुलित एवं वस्तुपरक विश्लेषण
महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना न तो अंध-प्रशंसा थी और न ही कटु निंदा। वे संतुलन के पक्षधर थे। उन्होंने कबीर, तुलसी, सूर और भारतेंदु जैसे कवियों की आलोचना भी की, लेकिन उसमें निष्पक्षता थी। उन्होंने गुण-दोषों का तटस्थ विश्लेषण किया।
प्रमुख आलोचनात्मक कृतियाँ
हालाँकि द्विवेदी जी की आलोचनात्मक रचनाएँ अलग-अलग लेखों, संपादकीयों और निबंधों में बिखरी हुई हैं, लेकिन उनके विचारों को हम विशेष रूप से ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित लेखों और प्रस्तावनाओं में देख सकते हैं।
- ‘सरस्वती’ पत्रिका में संपादकीय: इनमें साहित्य, भाषा और समाज के विविध मुद्दों पर विचारपूर्ण टिप्पणियाँ थीं।
- ‘हिंदी भाषा और साहित्य’: यह उनका विचारप्रधान लेख संग्रह था, जिसमें आलोचनात्मक विवेक की झलक स्पष्ट है।
द्विवेदी जी की आलोचना: तुलनात्मक दृष्टिकोण
अगर हम महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि की तुलना रामचंद्र शुक्ल या नमवर सिंह जैसे आलोचकों से करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि द्विवेदी जी की आलोचना आदर्शवादी और नैतिकतावादी थी, जबकि शुक्ल जी ने इतिहास-आधारित वैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया। इस तुलना से यह भी स्पष्ट होता है कि द्विवेदी जी की आलोचना में भले ही आधुनिक आलोचना सिद्धांतों की संरचना नहीं हो, परंतु विवेकपूर्ण दृष्टिकोण और गहन सामाजिक चेतना अवश्य थी।
आलोचना पर प्रभाव
- भाषा के मानकीकरण में योगदान
आलोचना में भाषा की उपयोगिता को स्थापित कर उन्होंने हिंदी के मानकीकरण की दिशा में बड़ी भूमिका निभाई। - साहित्यिक अनुशासन की स्थापना
उनके समय में भावुकता, अनगढ़ भाषा, और विषयहीन रचनाओं की भरमार थी। द्विवेदी जी ने इस प्रवृत्ति पर नकेल कसी और गंभीर साहित्यिक अनुशासन की नींव रखी। - आलोचना को स्वीकृति दिलाई
उन्होंने आलोचना को साहित्य का एक आवश्यक अंग बनाकर प्रस्तुत किया। उनके पूर्व आलोचना या समीक्षा को कोई विशेष महत्व नहीं देता था।
आलोचना पर प्रमुख दृष्टांत
- तुलसीदास की आलोचना
उन्होंने तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ की प्रशंसा तो की, लेकिन उसमें वर्ण व्यवस्था और नारी पात्रों की सीमित भूमिका को भी रेखांकित किया। - भारतेंदु हरिश्चंद्र की समीक्षा
उन्होंने भारतेंदु को युग-निर्माता तो माना, लेकिन उनकी भाषा और भावुकता में अधिकता की ओर भी संकेत किया।
आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता
आज जब आलोचना अक्सर पक्षधरता, पूर्वग्रह और विचारधारा की गिरफ्त में आ जाती है, वहाँ द्विवेदी जी का संतुलित, विवेकशील और नैतिक आलोचना दृष्टिकोण एक प्रेरणा स्रोत है। उनकी आलोचना दृष्टि हमें यह सिखाती है कि कैसे साहित्य को समाज और व्यक्ति के उत्थान का साधन बनाया जा सकता है।
निष्कर्ष
महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि हिंदी साहित्य की बुनियाद में एक मजबूत स्तंभ के रूप में है। उन्होंने साहित्य को मनोरंजन से निकालकर समाज सुधार और मूल्य-निर्माण का माध्यम बनाया। उनकी दृष्टि में आलोचना केवल साहित्य की परख नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक संवाद भी थी। वे आलोचक कम, विचारक अधिक थे – और यही उन्हें विशिष्ट बनाता है।
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FAQs: महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना-दृष्टि
महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि की मुख्य विशेषता क्या थी?
उनकी आलोचना दृष्टि नैतिकता, तार्किकता और सामाजिक चेतना पर आधारित थी।
क्या द्विवेदी जी केवल हिंदी भाषा के आलोचक थे?
नहीं, वे साहित्य, समाज और भाषा – तीनों पर समान रूप से गहन दृष्टि रखते थे।
उन्होंने किस पत्रिका का संपादन किया?
उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका का लंबे समय तक संपादन किया और उसे हिंदी पुनर्जागरण का माध्यम बनाया।
द्विवेदी युग किसे कहा जाता है?
1900 से 1920 के बीच का समय ‘द्विवेदी युग’ कहलाता है, जब हिंदी गद्य और कविता में आधुनिकता आई।
उनकी आलोचना का आज क्या महत्व है?
आज भी उनकी संतुलित, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण आलोचना दृष्टि मार्गदर्शक मानी जाती है।