भूमिका
काव्य-नाटक के रूप में अंधायुग की भाषा और मूल संवेदना: धर्मवीर भारती द्वारा रचित अंधायुग हिंदी साहित्य के आधुनिक काव्य-नाटकों में एक अप्रतिम कृति है। यह नाटक केवल पौराणिक प्रसंगों का आधुनिक पुनर्पाठ नहीं करता, बल्कि समाज, नैतिकता, युद्ध और आत्मचिंतन जैसे गूढ़ विषयों पर भी गंभीर विमर्श प्रस्तुत करता है। इसकी भाषा और मूल संवेदना इसे एक विशिष्ट काव्य-नाटक बनाती है।
काव्य-नाटक की परंपरा और अंधायुग
काव्य-नाटक का स्वरूप
काव्य-नाटक, नाटक की वह विधा है जिसमें संवादों में पद्य-रूपता होती है और दृश्यात्मकता के स्थान पर विचारात्मकता अधिक होती है। ‘अंधायुग’ इस दृष्टि से सफल काव्य-नाटक है जो मंचन की अपेक्षा पाठ और चिंतन का माध्यम बनता है।
अंधायुग में काव्यात्मक विशेषताएँ
- पद्यात्मक शैली: संपूर्ण नाटक छंदमुक्त काव्य में लिखा गया है, जिसमें प्रतीकों, बिंबों और रूपकों का प्रचुर प्रयोग है।
- ध्वन्यात्मकता और लयात्मकता: भाषा में प्रयुक्त ध्वनियाँ दृश्य बोध के साथ-साथ मानसिक संवेदना को भी जगाती हैं।
अंधायुग की भाषा: प्रतीक, बिंब और शैली
प्रयोगवादी भाषा शैली
अंधायुग प्रयोगवादी और प्रगतिशील परंपराओं के मध्य पुल बनाता है। भारती की भाषा प्रयोगशील है, जिसमें शब्द एक ही साथ बिंब, प्रतीक और विचार तीनों का कार्य करते हैं।
[news_related_post]उदाहरण:
“संध्या का समय है। धूल से ढकी हुई कुरुक्षेत्र की भूमि रक्त-स्नात हो चुकी है।”
यह पंक्ति न केवल दृश्य निर्माण करती है, बल्कि युद्ध की विभीषिका को भी संकेतित करती है।
प्रतीकात्मक भाषा
- धृतराष्ट्र अंधता का प्रतीक हैं — न केवल शारीरिक अंधता, बल्कि नैतिक और मानसिक दृष्टिहीनता का भी।
- कृष्ण यथार्थ और विवेक के प्रतीक हैं — जो हर पात्र के निर्णय में अंतःस्थ चेतना के रूप में विद्यमान हैं।
द्वैध अर्थ वाले शब्द
भारती ने ऐसे शब्दों का चयन किया है जिनका अर्थ बहुस्तरीय होता है। इससे भाषा में गहराई और बहुआयामी व्याख्या संभव होती है।
मूल संवेदना: अंधकार, द्वंद्व और आशा
युद्धोत्तर समाज की त्रासदी
अंधायुग की मूल संवेदना महाभारत के युद्ध के बाद की मानसिकता, नैतिक संकट, और व्यक्ति की असमर्थता को उजागर करती है। यह संवेदना व्यक्तिगत और सामाजिक, दोनों स्तरों पर मुखर होती है।
नैतिक और अस्तित्वगत द्वंद्व
- अश्वत्थामा — अर्ध-विवेक और अर्ध-अविवेक के बीच झूलता हुआ पात्र, जो अपने अपराध और दंड के द्वंद्व में फंसा है।
- युधिष्ठिर — धर्म और उत्तरदायित्व के तनाव से ग्रस्त व्यक्तित्व।
आशा की चिंगारी
नाटक की अंतिम संवेदना निराशा नहीं है, बल्कि “नव निर्माण” की संभावना है। अंधायुग अंधकार के बावजूद एक प्रकाश-रेखा की ओर संकेत करता है।
मंचन और दृश्य संरचना
दृश्यहीनता में दृश्य बोध
यद्यपि अंधायुग दृश्य नाटक नहीं है, परंतु उसकी भाषा दृश्य निर्माण करती है। युद्ध के ध्वंस, चरित्रों की आंतरिक मनःस्थिति, और वातावरण का चित्रण इतनी सजीवता से होता है कि पाठक को मंचन का अनुभव होता है।
ध्वनि और मौन का प्रयोग
ध्वनि प्रभावों और मौन की अभिव्यक्ति के माध्यम से तनाव और संवेदना को गहराया गया है। उदाहरणतः कृष्ण का मौन संवाद में नहीं लेकिन चेतना में प्रतिध्वनित होता है।
समकालीनता और अंधायुग
आधुनिक समस्याओं का पौराणिक प्रतिरूप
अंधायुग में प्रस्तुत घटनाएँ केवल महाभारत तक सीमित नहीं हैं, वे आधुनिक समाज के भी गूढ़ यथार्थ को उद्घाटित करती हैं। युद्ध, सत्ता का लोभ, नैतिकता का पतन — ये सभी आधुनिक संकट हैं।
मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
प्रत्येक पात्र की आंतरिक यात्रा — अपराधबोध, संदेह, आत्मग्लानि, और आत्मनिषेध — आधुनिक मनोविज्ञान के सिद्धांतों से मेल खाती है।
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FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
1. अंधायुग को काव्य-नाटक क्यों कहा जाता है?
क्योंकि यह छंदमुक्त पद्य में लिखा गया है और दृश्य से अधिक विचार की प्रधानता रखता है।
2. अंधायुग की भाषा की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
इसकी भाषा प्रतीकात्मक, गूढ़ और प्रयोगवादी है जिसमें बिंबों और बहुस्तरीय अर्थों का उपयोग हुआ है।
3. अंधायुग की मूल संवेदना क्या है?
युद्धोत्तर नैतिक संकट, अस्तित्वगत द्वंद्व और अंधकार में आशा की किरण इसका केंद्रीय भाव है।
4. क्या अंधायुग आज भी प्रासंगिक है?
हाँ, यह आज के सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक संकटों को प्रतिबिंबित करता है।