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हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास

हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास
हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास

                                                      हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास

भूमिका:

किसी भी साहित्य की पूर्णता एवं विकास के लिए आलोचना आवश्यक होती है। आलोचना साहित्य को दिशा प्रदान करती है, रचनाओं के गुण-दोषों को स्पष्ट करती है, और रचनाकार तथा पाठक के बीच एक संवाद स्थापित करती है। हिंदी साहित्य के विकास क्रम में आलोचना विधा का उद्भव एवं विकास विविध चरणों में संपन्न हुआ है, जिसका अध्ययन साहित्य के विकास के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आवश्यक है। इस आलेख में हम हिंदी आलोचना के उद्भव एवं विकास को कालक्रमानुसार विस्तार से समझेंगे।

आलोचना का अर्थ और परिभाषा:

आलोचना का अर्थ है—किसी भी रचना के गुण-दोषों की विवेकपूर्ण विवेचना एवं मूल्यांकन। आलोचना साहित्य को परखने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो रचनाकार और पाठक दोनों के लिए लाभप्रद होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “साहित्य के अंतर्गत आलोचना का काम किसी कवि की रचना में सत्यता, जीवन-संगति, सौंदर्य एवं उद्देश्य की दृष्टि से उसकी योग्यता या अयोग्यता का विचार करना है।”

हिंदी आलोचना का उद्भव (आरंभिक चरण):

हिंदी आलोचना का विधिवत उद्भव आधुनिक काल (भारतेंदु युग) के साथ माना जाता है। परंतु यह कहना ठीक होगा कि हिंदी में आलोचनात्मक चेतना प्रारंभ से ही मौजूद थी, जिसका प्रमाण मध्यकालीन भक्तिकाल के आचार्यों की टीकाओं, टिप्पणियों एवं संवादों में मिलता है। भक्तिकालीन कवियों, विशेषतः कबीर, तुलसी, जायसी, और सूर की रचनाओं में सामाजिक एवं धार्मिक आलोचना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

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लेकिन आलोचना को विधिवत विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय आधुनिक कालीन भारतेंदु युग (1857-1900) को जाता है।

भारतेंदु युग में आलोचना (1857-1900):

भारतेंदु युग में साहित्य के साथ ही हिंदी आलोचना का भी जन्म होता है। इस काल में आलोचना मुख्यतः समीक्षात्मक टिप्पणियों, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों, और भाषणों के माध्यम से हुई। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्य में लोकचेतना, राष्ट्रीय जागरण, और सामाजिक सुधार जैसे मुद्दों पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ कीं। उन्होंने साहित्य में यथार्थवाद, राष्ट्रीय चेतना एवं सामाजिक प्रतिबद्धता की महत्ता स्थापित की।

इस काल के प्रमुख आलोचक थे:

  • भारतेंदु हरिश्चंद्र: इन्होंने साहित्य को सामाजिक सुधार का साधन माना तथा रचनाओं की समीक्षा में व्यावहारिकता और उपयोगिता पर बल दिया।
  • बालकृष्ण भट्ट: ‘हिंदी प्रदीप’ के माध्यम से साहित्य समीक्षा का प्रारंभ किया। उनकी आलोचना तार्किक और विवेकपूर्ण थी, जो साहित्य के समाजोपयोगी मूल्यांकन पर आधारित थी।

द्विवेदी युग (1900-1920):

महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में हिंदी आलोचना अधिक वैज्ञानिक, तार्किक, और व्यवस्थित रूप से विकसित हुई। द्विवेदी जी ने भाषा, शैली, व्याकरण एवं साहित्यिक गुणवत्ता के मानदंड स्थापित किए। साहित्यिक समीक्षा को बौद्धिक, तार्किक तथा वैज्ञानिक आधार दिया।

द्विवेदी युग के मुख्य आलोचक:

  • महावीर प्रसाद द्विवेदी: आलोचना को अनुशासनबद्ध किया तथा साहित्यिक कृतियों में भाषाई और साहित्यिक शुद्धता पर ज़ोर दिया।
  • पद्मसिंह शर्मा: ‘साहित्य समालोचना’ (1916) जैसी कृतियों के माध्यम से व्यवस्थित आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित किया।

छायावाद युग की आलोचना (1920-1936):

छायावाद काल में आलोचना में सौंदर्यवादी दृष्टि, कल्पना, संवेदना एवं काव्यात्मकता पर विशेष ज़ोर दिया गया। आलोचना में मनोवैज्ञानिक और सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण आया। यह काल हिंदी आलोचना के व्यापक और गहरे स्वरूप की आधारभूमि बनी।

इस युग के प्रमुख आलोचक थे:

  • रामचंद्र शुक्ल: हिंदी आलोचना को वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, और तुलनात्मक दृष्टि से विकसित किया। उनकी कृति ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ हिंदी आलोचना का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ है।
  • नंददुलारे वाजपेयी: ‘आधुनिक साहित्य’ जैसी पुस्तक में छायावाद के मूल्यांकन को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया।

प्रगतिवादी आलोचना (1936-1950):

प्रगतिवाद ने साहित्य और आलोचना को सामाजिक एवं राजनीतिक सरोकारों से जोड़ दिया। साहित्य को जनता के संघर्षों, सामाजिक अन्याय एवं आर्थिक विषमताओं का आईना माना गया। आलोचना का आधार सामाजिक यथार्थ और प्रगतिशील विचारधारा बनी।

प्रमुख आलोचक:

  • रामविलास शर्मा: मार्क्सवादी दृष्टिकोण को हिंदी आलोचना में प्रस्तुत किया। उनकी ‘प्रेमचंद और उनका युग’ जैसी कृतियाँ ऐतिहासिक एवं सामाजिक संदर्भ में आलोचना का सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
  • नामवर सिंह: इन्होंने आलोचना में मार्क्सवादी और यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ-साथ समकालीन साहित्यिक परिदृश्य की व्यापक समीक्षा की।

नई समीक्षा और प्रयोगवादी आलोचना (1950-1970):

नई कविता के युग में आलोचना में भाषाशास्त्रीय, संरचनावादी, और नई आलोचनात्मक पद्धतियाँ विकसित हुईं। साहित्य के सौंदर्य, प्रतीकात्मकता, और भाषाई संरचना का महत्व बढ़ा।

इस दौर के मुख्य आलोचक:

  • नामवर सिंह: ‘छायावाद’ तथा ‘कविता के नए प्रतिमान’ में आधुनिक आलोचना के नए सिद्धांतों को स्थापित किया।
  • डॉ. नगेंद्र: प्रयोगवादी दृष्टिकोण से साहित्य का मूल्यांकन किया।

समकालीन आलोचना (1970 से अब तक):

समकालीन आलोचना ने उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-संरचनावाद, विमर्शवादी आलोचना (दलित, स्त्री, आदिवासी), आदि को विकसित किया। साहित्य में अस्मितावादी विमर्श एवं हाशिये की आवाजों को महत्व मिला।

प्रमुख आलोचक:

  • नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजेंद्र यादव, और ओमप्रकाश वाल्मीकि ने आलोचना को नए सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्शों से जोड़ा। हिंदी आलोचना अब वैश्विक विचारों के परिप्रेक्ष्य में विकसित होने लगी।

निष्कर्ष:

हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास निरंतर बदलते समय और समाज की आवश्यकताओं के अनुसार हुआ है। भक्तिकालीन संवादों से आधुनिक विमर्शवादी आलोचना तक हिंदी आलोचना की यात्रा एक लंबा, रोचक एवं सार्थक सफ़र रही है। यह आलोचना साहित्य को केवल परखने का ही नहीं, अपितु समाज एवं संस्कृति के गहरे मूल्यांकन का माध्यम भी बनी। आज भी हिंदी आलोचना नई चुनौतियों के साथ नए आयामों की तलाश में निरंतर गतिमान है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

  • हिंदी आलोचना का उद्भव कब हुआ?
    हिंदी आलोचना का विधिवत उद्भव भारतेंदु युग (1857-1900) में हुआ।

  • हिंदी आलोचना के प्रमुख आलोचक कौन हैं?
    प्रमुख आलोचक हैं: रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि।

  • छायावादी आलोचना की विशेषता क्या है?
    छायावादी आलोचना सौंदर्यवादी दृष्टिकोण और कल्पनाशीलता पर बल देती है।

  • प्रगतिवादी आलोचना किसे कहते हैं?
    वह आलोचना जो साहित्य को सामाजिक यथार्थ और प्रगतिशील विचारधारा से जोड़कर देखती है।

  • आधुनिक आलोचना में किस प्रकार के विमर्श प्रचलित हैं?
    आधुनिक आलोचना में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, और आदिवासी विमर्श प्रमुख हैं।

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