गाँधीवादी राजनीति और सूरदास: प्रेमचंद के ‘रंगभूमि’ में आदर्श नायक का पुनर्पाठ

प्रस्तावना

गाँधीवादी राजनीति और सूरदास: प्रेमचंद का उपन्यास रंगभूमि भारतीय साहित्य में सामाजिक चेतना, राजनीतिक संघर्ष और नैतिक मूल्यों का अद्वितीय समन्वय प्रस्तुत करता है। इस कृति का केंद्रीय पात्र सूरदास एक दृष्टिहीन व्यक्ति होते हुए भी दृष्टिसंपन्न, सजग और यथार्थवादी है। यह पात्र केवल कथा का एक हिस्सा नहीं, बल्कि गाँधीवादी विचारधारा का मूर्त रूप है। गाँधीजी की नीति—अहिंसा, सत्याग्रह, आत्मबल और सामाजिक समरसता—सूरदास के आचरण में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।

सूरदास और गाँधीवाद का संबंध

1. अहिंसा की शक्ति

गाँधीजी की विचारधारा का मूल स्तंभ अहिंसा है, जो रंगभूमि में सूरदास के व्यवहार और संघर्ष में सहज रूप से दिखाई देती है। वह कभी भी हिंसा का सहारा नहीं लेते, चाहे उन पर कितना ही अत्याचार क्यों न हो। अपनी ज़मीन पर बने कारखाने का विरोध वे अहिंसात्मक तरीकों से करते हैं—विचार, संवाद और आत्मबल से।

“वह अंधा है, परंतु उसकी चेतना से पूरा समाज रोशन होता है।”

2. सत्य के प्रति प्रतिबद्धता

सूरदास का चरित्र गाँधीवादी सत्य की भावना को पूर्णत: निभाता है। उनके भीतर आत्मा की आवाज़ है जो उन्हें झूठ और छल-कपट के विरुद्ध खड़ा करती है। पूँजीवादी ताकतों के सामने भी वह झुकते नहीं, क्योंकि उनके लिए सत्य ही सर्वोपरि है।

3. स्वदेशी और आत्मनिर्भरता का आदर्श

गाँधीजी ने स्वदेशी को आत्मनिर्भर भारत की कुंजी माना। सूरदास इसी भावना को लेकर अपने गाँव की भूमि को बाहरी पूँजीपतियों के हाथों जाने नहीं देना चाहता। वह मानता है कि ग्रामीण जन की आत्मनिर्भरता ही राष्ट्र की सच्ची स्वतंत्रता है।

सूरदास: एक नैतिक और आध्यात्मिक योद्धा

1. चरित्र की मजबूती

सूरदास सामाजिक असमानता, धार्मिक कट्टरता और जातिवाद के विरुद्ध खड़ा होता है। वह समाज में व्याप्त अन्याय और शोषण का सामना केवल नैतिक बल से करता है। उसका अंधत्व उसके नैतिक दृष्टिकोण को बाधित नहीं करता, बल्कि उसे और अधिक सशक्त बनाता है।

2. सामाजिक समरसता का संदेश

गाँधीजी की तरह सूरदास भी धर्म और जाति के भेद से ऊपर उठकर सभी को समान दृष्टि से देखता है। उसका संबंध हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों से है और वह सामाजिक सौहार्द्र का वाहक बनकर उभरता है।

सूरदास का संघर्ष: एक गाँधीवादी आंदोलन

1. औद्योगीकरण के विरुद्ध जन आंदोलन

‘रंगभूमि’ में जो कारखाना सूरदास की भूमि पर बनता है, वह केवल पूँजीवादी विकास का प्रतीक नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत के शोषण का संकेत भी है। सूरदास इसका विरोध गाँधीजी की तरह जनजागरण और नैतिक प्रेरणा से करता है।

2. नैतिक शक्ति बनाम राज्य शक्ति

गाँधीजी का मानना था कि नैतिक बल राज्य शक्ति से अधिक प्रभावशाली होता है। सूरदास का चरित्र इसी भावना को सत्यापित करता है। सत्ता, प्रशासन और धनबल के विरुद्ध वह अकेला खड़ा होता है, और अपने संकल्प, धैर्य व नैतिकता से उन्हें चुनौती देता है।

प्रेमचंद की दृष्टि में सूरदास: गाँधीवादी नायक

प्रेमचंद जब ‘रंगभूमि’ लिख रहे थे, तब भारत में गाँधीजी की राजनीति ने जड़ें पकड़नी शुरू कर दी थीं। प्रेमचंद ने सूरदास के माध्यम से उस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता—नैतिक नेतृत्व, अहिंसक संघर्ष और सामाजिक न्याय—को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया।

“सूरदास न केवल रंगभूमि का नायक है, वह भारत की आत्मा का प्रतिनिधि है।”

समापन

रंगभूमि के सूरदास को यदि हम गाँधीवादी राजनीति की कसौटी पर परखें, तो वह हर स्तर पर खरा उतरता है। उसका संघर्ष व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक है। उसका उद्देश्य निजी नहीं, सार्वजनिक कल्याण है। वह गाँधीवादी विचारधारा की सजीव प्रतिमा है, जो हमें सिखाता है कि सच्चा नेता वही है जो त्याग, सेवा और सत्य के मार्ग पर चलता है।

आज जब राजनीति में नैतिक मूल्यों की कमी महसूस की जा रही है, तब सूरदास जैसे पात्रों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। प्रेमचंद की यह रचना केवल एक साहित्यिक उपलब्धि नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और राजनीतिक नैतिकता का स्त्रोत है।

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