चीफ़ की दावत का प्रतिपाद्य

चीफ़ की दावत का प्रतिपाद्य: भीष्म साहनी हिंदी साहित्य के उन महान कथाकारों में से हैं जिन्होंने आम आदमी की पीड़ा, संघर्ष, विडंबना और मानसिकता को यथार्थवादी ढंग से शब्दों में ढाला। उनकी कहानी “चीफ़ की दावत” न केवल एक व्यंग्यात्मक कथा है, बल्कि यह समाज के वर्गीय ढांचे, सत्ता के प्रति आकर्षण और दिखावटी जीवन शैली पर करारा प्रहार करती है।

इस कहानी का प्रतिपाद्य (थीम) है — सत्ता का प्रतीकवाद, समाज में पद और प्रभाव के प्रति आमजन का झुकाव, मध्यवर्ग की हीन भावना तथा आत्मविस्मृति


कहानी का सारांश

कहानी एक कॉलोनी में रहने वाले कुछ परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती है, जहां एक ‘चीफ़’ नामक व्यक्ति के आने की सूचना से हड़कंप मच जाता है। चीफ़ का नाम, पद, और प्रभाव कॉलोनीवासियों के लिए किसी दैविक आगमन से कम नहीं होता। लोग अपने-अपने घरों की सफ़ाई से लेकर व्यंजन बनाने और स्वागत-सत्कार तक में लग जाते हैं।

कहानी में असल नामों और व्यक्तिगत पृष्ठभूमियों से ज़्यादा महत्त्व उस “चीफ़” के प्रतीकात्मक महत्त्व को दिया गया है जो सत्ता, पद और प्रभाव का प्रतिनिधि है। दिलचस्प बात यह है कि अधिकांश लोगों को पता भी नहीं होता कि यह चीफ़ कौन है, उसका क्षेत्र क्या है या वह कैसा व्यक्ति है।


प्रतिपाद्य का विस्तार

1. सत्ता का प्रतीकवाद

‘चीफ़’ किसी विशेष व्यक्ति का नाम नहीं है, वह सत्ता और पद के सम्मोहन का प्रतीक है। जैसे ही लोगों को यह सूचना मिलती है कि चीफ़ आ रहा है, उनके व्यवहार, भाषा और कार्यशैली में परिवर्तन आ जाता है। वे एक ऐसे व्यक्ति की खातिरदारी में लग जाते हैं जिसे वे जानते तक नहीं।

यह दर्शाता है कि हमारा समाज आज भी पद और प्रभाव के नाम पर अंधभक्ति करता है। व्यक्ति की योग्यता या विचारधारा नहीं, बल्कि उसका पद महत्त्वपूर्ण होता है।

2. मध्यवर्ग की मानसिकता

भीष्म साहनी ने बड़े ही सटीक तरीके से मध्यमवर्गीय भारतीय मानसिकता को उजागर किया है। यह वर्ग एक तरफ़ आधुनिकता का प्रदर्शन करना चाहता है, तो दूसरी ओर सत्ता के सामने अपने अस्तित्व को बौना मानता है

गुप्ता जी और उनकी पत्नी जैसे पात्र, जो कॉलोनी के संभ्रांत माने जाते हैं, भी चीफ़ की दावत में खुद को झोंक देते हैं। वे मानते हैं कि यदि चीफ़ उनके घर आया, तो उनकी सामाजिक स्थिति ऊँची हो जाएगी।

3. दिखावटी संस्कृति की आलोचना

कहानी में “दावत” का आयोजन असल में एक प्रदर्शन है, न कि आत्मीयता का परिचायक। यह दावत एक तरह से सामाजिक प्रतिस्पर्धा बन जाती है — कौन सबसे ज़्यादा स्वादिष्ट व्यंजन बनाएगा, किसका घर सबसे साफ़ होगा, किसकी बातचीत में ज़्यादा प्रभाव होगा।

यह सब दर्शाता है कि हमारा समाज ‘आत्मा’ से नहीं बल्कि ‘आडंबर’ से प्रभावित होता है

4. व्यक्तित्वहीनता और आत्मविस्मृति

कहानी में कोई यह नहीं पूछता कि चीफ़ का नाम क्या है, उसका स्वभाव कैसा है, या वह समाज के लिए क्या कर रहा है। इस अंधानुकरण में लोग अपने स्वयं के अस्तित्व, मान और विवेक को खो देते हैं। यह आत्मविस्मृति का ही परिचायक है।


भाषा, शैली और व्यंग्य

भीष्म साहनी की भाषा सरल, स्पष्ट और व्यंग्यात्मक है। उन्होंने कथा में प्रतीकों का प्रभावशाली उपयोग किया है। उनकी शैली में कहीं भी कृत्रिमता या बनावटीपन नहीं है, बल्कि पाठक हर दृश्य को अपनी आँखों के सामने घटित होता महसूस करता है।

उनकी लेखन शैली पाठक को सोचने के लिए विवश करती है — क्या हम भी किसी ‘चीफ़’ के आने पर वैसे ही बर्ताव करते हैं?


समकालीन प्रासंगिकता

यह कहानी केवल उस समय के सामाजिक ढांचे की आलोचना नहीं करती, बल्कि आज के संदर्भों में भी उतनी ही सटीक और प्रासंगिक है। आज भी हम राजनेताओं, उच्चाधिकारियों, या फ़िल्मी सितारों के प्रति उसी तरह की अंधश्रद्धा और दिखावटी उत्सव करते हैं। सोशल मीडिया पर किसी बड़े व्यक्ति का ‘लाइक’ या ‘रीपोस्ट’ पाना आज का नया ‘चीफ़ आना’ है।


अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

प्रश्न 1: चीफ़ की दावत का मुख्य संदेश क्या है?
उत्तर: यह कहानी सत्ता के दिखावे, सामाजिक प्रतिस्पर्धा और आम आदमी की मानसिकता की गहराइयों को उजागर करती है।

प्रश्न 2: इस कहानी में प्रतीकों का क्या उपयोग है?
उत्तर: ‘चीफ़’ सत्ता का प्रतीक है, ‘दावत’ सामाजिक दिखावे का, और कॉलोनीवासी आम जन की मानसिकता के प्रतीक हैं।

प्रश्न 3: क्या यह कहानी आज के संदर्भ में प्रासंगिक है?
उत्तर: हाँ, आज भी समाज में पद और प्रतिष्ठा के आगे लोग झुकते हैं और दिखावे को प्राथमिकता देते हैं।

प्रश्न 4: भीष्म साहनी की लेखन शैली की क्या विशेषता है?
उत्तर: उनकी शैली सहज, व्यंग्यात्मक और यथार्थ के निकट होती है, जो पाठक को सोचने के लिए प्रेरित करती है।


निष्कर्ष

“चीफ़ की दावत” एक ऐसी कथा है जो साधारण घटनाओं में असाधारण संदेश छुपाए हुए है। यह न केवल मध्यवर्गीय समाज की सोच को उजागर करती है बल्कि हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि कहीं हम भी किसी काल्पनिक चीफ़ की दावत की तैयारी में तो नहीं लगे हैं?

भीष्म साहनी का यह रचना संसार हमें न केवल हँसाता है, बल्कि समाज की वास्तविकता से भी रुबरु कराता है।

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