बिहारी के काव्य में अभिव्यक्त शृंगार भावना

प्रस्तावना

बिहारी के काव्य में अभिव्यक्त शृंगार भावना: हिंदी साहित्य के रीतिकालीन काव्य में बिहारीलाल का नाम अत्यंत आदर और सम्मान से लिया जाता है। ‘बिहारी सतसई’ जैसी अद्वितीय काव्यकृति ने उन्हें अमरत्व प्रदान किया। बिहारीलाल ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि, ललित कल्पना और अलंकारिक कौशल से जीवन के विविध भावों को विशेष रूप से शृंगार रस के माध्यम से अभिव्यक्त किया। यद्यपि उनके काव्य में नीति, भक्ति और सामाजिक जीवन के संकेत भी मिलते हैं, परंतु शृंगार भावना उनकी रचनाओं का प्रमुख आधार है।

रीतिकाल और शृंगार रस की पृष्ठभूमि

रीतिकाल (संवत् 1650–1900 के लगभग) हिंदी साहित्य का वह युग है जिसमें रस, अलंकार और नायक-नायिका के भावचित्र काव्य का केंद्र बने। दरबारी संस्कृति, विलासप्रिय वातावरण और राजाश्रय ने शृंगार रस के विकास को प्रोत्साहन दिया। इस पृष्ठभूमि में बिहारी का काव्य जन्मा, जिसने शृंगार की संयमित, कलात्मक और भावनात्मक अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया।

बिहारी के शृंगार भाव का स्वरूप

1. संयमित एवं सांकेतिक अभिव्यक्ति

बिहारी की विशेषता है कि वे शृंगार को अश्लीलता से मुक्त, सांकेतिक और ललित रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके दोहों में सीधे चित्रण के बजाय संकेत, उपमा और रूपक के माध्यम से भाव व्यक्त होते हैं, जिससे सौंदर्य और भी कोमल हो उठता है।

उदाहरणतः, वे नेत्र, अधर, चाल, वाणी, वसंत-ऋतु आदि का प्रयोग प्रतीक के रूप में करते हैं, जिससे प्रेम का सौंदर्य सूक्ष्मता से उभरता है।

2. श्रृंगार के दोनों रूप – संयोग और वियोग

बिहारी ने शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों रूपों का चित्रण किया है—

  • संयोग शृंगार – प्रियतम-प्रियतमा के मिलन, दृष्टि-संवाद, छेड़छाड़, हास-परिहास के दृश्य।
  • वियोग शृंगार – मिलन की उत्कंठा, विरह की वेदना, अधूरी आकांक्षाएँ, संदेश प्रेषण आदि।

उनकी कविता में संयोग की माधुर्यता और वियोग की करुणा दोनों का संतुलन है, जो भावात्मक गहराई प्रदान करता है।

3. नायिका-भेद और मनोवैज्ञानिक चित्रण

बिहारी ने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र और आचार्य केशवदास की परंपरा का पालन करते हुए विभिन्न नायिकाओं का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया। उनकी रचनाओं में स्वाधीनभर्तृका, वासकसज्जा, अभिसारिका, खंडिता, प्रोषितभर्तृका आदि नायिकाओं के चित्र जीवंत दिखाई देते हैं।

ये नायिकाएँ केवल शारीरिक सौंदर्य का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि उनके मनोभाव, चित्त की कोमलता और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रूप भी स्पष्ट होते हैं।

4. प्रकृति और ऋतु-सौंदर्य का सह-प्रयोग

बिहारी ने प्रकृति और ऋतु-वर्णन को प्रेम-भाव के साथ गहराई से जोड़ा। वसंत ऋतु का आना, कली का खिलना, चाँदनी रात, मेघों की गड़गड़ाहट—ये सब प्रेम की संवेदना को और तीव्र करते हैं।

उनकी रचना में अक्सर मौसम का चित्रण नायक-नायिका के मनोभाव के समानांतर चलता है, जिससे पाठक के मन में भाव-संवेदना गहरी हो जाती है।

5. अलंकारिक सौंदर्य और शब्द-चातुर्य

बिहारी के काव्य में शृंगार भावना को उभारने में अलंकारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है—

  • उपमा अलंकार – किसी अंग की तुलना चाँद, कमल, मृग आदि से।
  • रूपक अलंकार – नायिका और ऋतु या नायिका और पुष्प का एकाकार चित्रण।
  • श्लेष अलंकार – शब्दों में द्विअर्थी सौंदर्य, जिससे प्रेम का भाव और प्रखर हो।
  • अनुप्रास अलंकार – ध्वनि-सौंदर्य के माध्यम से काव्य को गेयता प्रदान करना।

इन अलंकारों का प्रयोग भाव को सजाने के लिए है, न कि केवल चमत्कार दिखाने के लिए।

6. लोकजीवन और सांस्कृतिक संदर्भ

यद्यपि बिहारी दरबारी कवि थे, परंतु उनके शृंगार चित्रण में लोकजीवन की सहजता भी मिलती है। नायिकाएँ कभी नगर की रमणियाँ हैं तो कभी गाँव की सादगीपूर्ण प्रेमिकाएँ। इससे उनके काव्य में सांस्कृतिक विविधता और जीवंतता आती है।

7. हास्य और चंचलता का पुट

बिहारी के शृंगार चित्रण में कभी-कभी चंचल हास्य का पुट भी मिलता है, विशेषकर संयोग प्रसंगों में। नायक-नायिका के बीच छेड़छाड़, मान-मनुहार, तर्क-वितर्क, प्रेम-प्रसंग को हल्के-फुल्के हास्य से रोचक बनाते हैं।

बिहारी के शृंगार भाव की विशेषताएँ

  1. संयम और मर्यादा – भाव की गहराई रखते हुए भी शृंगार अश्लीलता से दूर।
  2. सूक्ष्मता – संकेतों और प्रतीकों से प्रेम की कोमलता को उभारना।
  3. रस का संतुलन – संयोग और वियोग दोनों में समान दक्षता।
  4. काव्य-संक्षिप्तता – दोहे की सीमाओं में भाव का पूर्ण चित्रण।
  5. भाषा की ललितता – ब्रजभाषा की मधुरता और लयात्मकता।
  6. चित्रात्मकता – प्रत्येक दोहा एक जीवंत चित्र-सा प्रतीत होता है।

निष्कर्ष

बिहारी के काव्य में शृंगार भावना का सौंदर्य संयम, सांकेतिकता और भावपूर्ण चित्रण में निहित है। उन्होंने प्रेम को केवल शारीरिक आकर्षण तक सीमित न रखकर उसे मनोभाव, सांस्कृतिक प्रतीकों और प्रकृति-सौंदर्य से जोड़कर व्यापक आयाम दिया। इसीलिए ‘बिहारी सतसई’ आज भी प्रेम-काव्य का अनुपम उदाहरण मानी जाती है और बिहारी का नाम हिंदी साहित्य में शृंगार रस के शिखर कवियों में लिया जाता है।

FAQs: बिहारी के काव्य में अभिव्यक्त शृंगार भावना

Q1. बिहारी का काव्य किस युग से संबंधित है?
बिहारी का काव्य हिंदी साहित्य के रीतिकाल से संबंधित है।

Q2. बिहारी ने किस रस का अधिक प्रयोग किया है?
बिहारी ने मुख्यतः शृंगार रस का प्रयोग किया है, जिसमें संयोग और वियोग दोनों का सुंदर चित्रण है।

Q3. बिहारी के शृंगार चित्रण की मुख्य विशेषता क्या है?
संयमित, सांकेतिक और अलंकारिक सौंदर्य के साथ भाव की सूक्ष्म अभिव्यक्ति उनकी प्रमुख विशेषता है।

Q4. ‘बिहारी सतसई’ में कितने दोहे हैं?
‘बिहारी सतसई’ में लगभग 700 दोहे हैं, जिनमें प्रेम, नीति और भक्ति भाव समाहित हैं।

Q5. क्या बिहारी ने नायिका-भेद का चित्रण किया है?
हाँ, उन्होंने विभिन्न नायिकाओं जैसे वासकसज्जा, खंडिता, अभिसारिका आदि का सजीव चित्रण किया है।

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