1. प्रस्तावना
भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा: भारतीय काव्यशास्त्र केवल कविता या साहित्य के स्वरूप और शिल्प तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दर्शन, सौंदर्यशास्त्र और मनोविज्ञान से गहरे रूप में जुड़ा हुआ है। यह शास्त्र इस बात की खोज करता है कि “काव्य क्या है?”, “काव्य की आत्मा क्या है?”, “काव्य का उद्देश्य क्या है?” – और इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में भारतीय आचार्यों ने समय-समय पर विविध सिद्धान्त प्रतिपादित किए।
2. काव्यशास्त्र की आदिम भूमि – वैदिक युग
भारतीय काव्यशास्त्र की जड़ें वैदिक साहित्य में हैं। ऋग्वेद की ऋचाएँ छंदबद्ध, प्रतीकात्मक और भावनात्मक होने के कारण काव्य के आदिकालीन रूप को प्रकट करती हैं। इनका उद्देश्य केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि गूढ़ भावों की अभिव्यक्ति भी था।
3. भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ – प्रथम व्यवस्थित आधार
भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ (लगभग 2 शताब्दी ई.पू.) भारतीय काव्यशास्त्र का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। इसमें उन्होंने ‘रस सिद्धान्त’ को प्रस्तुत किया, जो आगे चलकर सम्पूर्ण काव्यशास्त्र की आधारशिला बना।
- उन्होंने 8 (बाद में 9) रसों की चर्चा की – शृंगार, वीर, करुण, रौद्र, हास्य, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शांत।
- रस की अनुभूति को ही नाटक और काव्य का अंतिम उद्देश्य बताया।
4. विभिन्न सिद्धान्तों का क्रमिक विकास
(क) अलंकार सिद्धान्त
- भामह (6वीं शताब्दी): काव्य की आत्मा को अलंकार माना।
- उद्भट, दंडी और रुद्रट ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
- प्रमुख अलंकार – उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुक्रमणिका आदि।
(ख) रीति सिद्धान्त
- वामन ने ‘रीति’ को काव्य की आत्मा घोषित किया।
- उन्होंने कहा – “रीतिरात्मा काव्यस्य”।
- मृदु-मधुर शब्द योजना, वर्णिक सौंदर्य और शब्दों की प्रांजलता को महत्व दिया।
(ग) ध्वनि सिद्धान्त
- आनन्दवर्धन (9वीं शताब्दी) – ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ में प्रतिपादित।
- उन्होंने कहा कि कविता में मुख्य अर्थ से परे एक गूढ़, अप्रकट अर्थ होता है – ध्वनि।
- उदाहरण: “कुर्वन्ति नम्रं जलधिं नीलकण्ठाः” – यहाँ मोर की सुंदरता के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से किसी प्रिय व्यक्ति की प्रशंसा की गई है।
(घ) रस सिद्धान्त का पुनः विस्तार
- अभिनवगुप्त ने रस को ध्वनि से जोड़ते हुए कहा कि रस ही काव्य का अंतिम उद्देश्य है – “रसनिष्पत्तिर्व्यङ्ग्यार्थस्य प्रयोजनम्”।
(ङ) औचित्य सिद्धान्त
- क्षेमेन्द्र ने ‘aucitya’ को काव्य का प्राण माना – अर्थात् काव्य में प्रत्येक अंग – पात्र, भाव, स्थान, भाषा – का उपयुक्त होना आवश्यक है।
5. उत्तरकालीन आचार्य और ग्रंथ
- मम्मट – ‘काव्यप्रकाश’: सभी सिद्धान्तों का समन्वय किया और काव्य की परिभाषा दी –
“वाक्यं रसात्मकं काव्यम्”। - विश्वनाथ – ‘साहित्यदर्पण’: रस सिद्धान्त को केंद्र में रखकर काव्य का संपूर्ण विवेचन किया।
- पण्डितराज जगन्नाथ – ‘रसगंगाधर’: नव्य दृष्टि से रसों की व्याख्या की और ‘शांत रस’ को सर्वोच्च माना।
6. आधुनिक युग में काव्यशास्त्र
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नगेन्द्र, नमवर सिंह आदि ने आधुनिक सौंदर्यशास्त्र और पश्चिमी सिद्धांतों के आलोक में काव्यशास्त्र की व्याख्या की।
- अब इसे साहित्यालोचना के उपकरण के रूप में देखा जाने लगा है – सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टियों से।
उपसंहार: भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा
भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा रस से लेकर रीति, अलंकार, ध्वनि और औचित्य तक निरंतर विकसित होती रही है। इसमें केवल काव्य की रचना नहीं, बल्कि मानव मन की गहराइयों में उतरने और सौंदर्य की अनुभूति कराने की क्षमता है। इसकी बहुआयामी दृष्टि आज भी साहित्य अध्ययन और आलोचना के क्षेत्र में अत्यंत उपयोगी है।