भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमि और अखिल भारतीय स्वरूप

भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमि और अखिल भारतीय स्वरूप: हिंदी साहित्य का इतिहास अनेक कालों में विभाजित है, जिनमें भक्तिकाल को स्वर्णिम युग कहा जाता है। इस युग ने भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य को गहराई से प्रभावित किया। यह केवल एक साहित्यिक आंदोलन नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक जागरण का भी प्रतीक था।


1. भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमि

1.1 मुस्लिम शासन और सामाजिक विघटन

13वीं शताब्दी के बाद भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना हुई। इससे न केवल राजनीतिक ढांचा बदला, बल्कि सामाजिक व्यवस्था भी विकृत हुई। हिंदू समाज जातिगत भेदभाव और आडंबरों में उलझा हुआ था। निम्न जातियों और महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। इस समय धार्मिक कट्टरता और कर्मकांड अपने चरम पर थे।

1.2 सांस्कृतिक टकराव और समरसता की आवश्यकता

मुस्लिम संस्कृति के प्रभाव से भारतीय समाज में असुरक्षा और हीनभावना उत्पन्न हुई। ऐसे समय में भक्ति आंदोलन ने समरसता, भाईचारे और धार्मिक सहिष्णुता का संदेश दिया। इसने धर्म को व्यक्ति की आत्मा से जोड़ने का कार्य किया।


2. धार्मिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि

2.1 वेदांत, योग और संत परंपरा

आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत, रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत और निंबार्क, वल्लभाचार्य, आदि संतों के मतों ने भक्ति के विविध स्वरूपों को जन्म दिया। इसी काल में नाथ योगियों, कबीर, रैदास, नानक जैसे संतों ने ज्ञान और भक्ति का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया।

2.2 भक्ति का लोकतांत्रिक स्वरूप

भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें जाति, वर्ग, लिंग आदि कोई बाधा नहीं थी। यह लोक के लिए लोकभाषा में था। इसने भव्य मंदिरों की जगह अंतःकरण को मंदिर माना।


3. सामाजिक और साहित्यिक क्रांति

3.1 लोकभाषाओं का उत्कर्ष

भक्तिकाल में हिंदी, अवधी, ब्रज, मैथिली, जैसी भाषाओं में काव्य रचना हुई, जो जनता की भाषा थी। इससे साहित्य आम जन तक पहुँचा।

3.2 सामाजिक समानता और चेतना

संत कवियों ने ब्राह्मणवाद, मूर्तिपूजा, और ढोंग का विरोध किया। उन्होंने मानवता और प्रेम को ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताया। यह क्रांति सामाजिक नवजागरण की भूमिका बनी।


4. भक्तिकाल का अखिल भारतीय स्वरूप

4.1 उत्तर भारत: निर्गुण और सगुण शाखा

कबीर, नानक, दादू जैसे संतों ने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जिसमें ईश्वर निराकार था। दूसरी ओर, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई जैसे कवियों ने सगुण भक्ति की रचना की, जिसमें राम और कृष्ण जैसे सगुण रूपों की आराधना हुई।

4.2 दक्षिण भारत: भक्ति का आदिस्रोत

भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में आलवार और नायनार संतों से हुई। उन्होंने संस्कृत के स्थान पर तमिल भाषा में रचना कर भक्ति को जन-जन तक पहुँचाया।

4.3 पूर्व और पश्चिम भारत में प्रसार

असम में शंकरदेव, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, महाराष्ट्र में नामदेव, एकनाथ और तुकाराम जैसे संतों ने इस आंदोलन को व्यापकता प्रदान की। सभी ने भाषा, जाति और क्षेत्र की सीमाओं को तोड़कर भक्ति का प्रचार किया।


5. निष्कर्ष

भक्तिकाल केवल एक साहित्यिक युग नहीं था, बल्कि यह सामाजिक क्रांति और सांस्कृतिक समरसता का युग था। इसने न केवल धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ा, बल्कि एक लोकतांत्रिक धार्मिक चेतना को जन्म दिया। इसका अखिल भारतीय स्वरूप इसकी सफलता और सार्वभौमिकता का प्रमाण है।

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FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)

प्र.1: भक्तिकाल कब से कब तक माना जाता है?
उ: लगभग 1350 ई. से 1700 ई. तक का समय भक्तिकाल माना जाता है।

प्र.2: भक्तिकाल की प्रमुख शाखाएँ कौन-सी हैं?
उ: निर्गुण (कबीर, नानक आदि) और सगुण (तुलसी, सूर, मीरा आदि) शाखाएँ।

प्र.3: भक्तिकाल का प्रमुख योगदान क्या है?
उ: समाज में समानता, जातिविहीन चेतना, लोकभाषा का विकास, और आध्यात्मिक लोकतंत्र।

प्र.4: भक्तिकाल का आरंभ दक्षिण भारत में कैसे हुआ?
उ: आलवार और नायनार संतों ने भक्ति को तमिल भाषा में प्रस्तुत किया और यह धीरे-धीरे उत्तर भारत में फैला।

प्र.5: भक्तिकाल के साहित्य की भाषा क्या थी?
उ: अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली, पंजाबी, मराठी, तमिल आदि क्षेत्रीय भाषाएँ।

 

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