आलोचना का उद्भव और विकास (aalochana ka udbhav aur vikas): ‘आलोचना’ का अर्थ मात्र दोष निकालना नहीं है। यह एक बौद्धिक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से किसी साहित्यिक रचना के गुण-दोषों का, उसकी अंतर्वस्तु, संरचना, भाषा, शैली और सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में मूल्यांकन किया जाता है। आलोचना न केवल रचना को समझने में सहायता करती है, बल्कि पाठकों को भी साहित्यिक दृष्टि प्रदान करती है।
1. प्राचीन आलोचना की परंपरा
हिंदी आलोचना का वास्तविक उद्भव आधुनिक युग में हुआ माना जाता है, लेकिन आलोचना का बीज तो संस्कृत साहित्य की परंपरा में बहुत पहले बोया जा चुका था।
संस्कृत में आलोचना
भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ और आचार्य मम्मट का ‘काव्यप्रकाश’ जैसे ग्रंथ साहित्यिक विवेचन की शुरुआत के रूप में देखे जा सकते हैं। ‘ध्वनि’, ‘रस’, ‘अलंकार’ जैसी अवधारणाएँ साहित्यिक समीक्षा के सैद्धांतिक आधार बने। उस समय आलोचना का उद्देश्य साहित्य को व्याख्यायित करना और काव्य के श्रेष्ठ रूप को परिभाषित करना था।
2. मध्यकालीन हिंदी साहित्य में आलोचनात्मक दृष्टि
भक्ति काल और रीतिकाल में आलोचना का कोई स्पष्ट स्वतंत्र रूप नहीं था, लेकिन कवियों की काव्य दृष्टि, शास्त्रीय प्रशिक्षण और विचार-चर्चा में आलोचना की छाया दिखाई देती है।
- भक्ति साहित्य में संतों ने तत्कालीन समाज, धर्म और सत्ता की आलोचना की। कबीर, रैदास, तुलसीदास आदि के काव्य में गहन समाज-संवेदी दृष्टिकोण देखा जा सकता है।
- रीतिकालीन काव्य में आचार्यत्व और नायिका भेद आदि के माध्यम से काव्य को परखने की चेष्टा की गई, यद्यपि यह सीमित था।
3. आधुनिक आलोचना का उद्भव (19वीं सदी के उत्तरार्ध में)
आधुनिक हिंदी आलोचना का प्रारंभ भारतेंदु युग से माना जाता है, जब साहित्य को सामाजिक उद्देश्य और राष्ट्रवादी चेतना से जोड़ा गया।
भारतेंदु युग
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने रचना के साथ आलोचना को भी महत्व दिया। वे न केवल श्रेष्ठ नाटककार थे, बल्कि साहित्य के उद्देश्य, भाषा और पाठकीय दृष्टि पर भी विमर्श करते थे। उनकी लेखनी में व्यंग्यात्मक आलोचना के बीज मौजूद थे।
4. द्विवेदी युग और तर्कपूर्ण आलोचना का विकास
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी आलोचना के प्रमुख शिल्पी थे। उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से साहित्य को नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों से जोड़ने का प्रयास किया।
- विशेषताएँ:
- आलोचना को गम्भीर विचारधारा का रूप दिया।
- भाषा, शैली और उद्देश्य की समीक्षा की।
- संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य से तुलनात्मक दृष्टि ली।
5. छायावादी युग और सौंदर्य दृष्टि की आलोचना
छायावादी युग में साहित्य अधिक आत्माभिव्यक्ति और सौंदर्य-निरूपण की ओर उन्मुख हुआ।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आलोचना को एक व्यवस्थित वैज्ञानिक अध्ययन का रूप दिया। उनकी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ आलोचना और इतिहास का अनूठा समन्वय है।
शुक्लीय आलोचना की विशेषताएँ:
- सामाजिक यथार्थ पर बल
- विचारप्रधानता
- तर्क और प्रमाण आधारित विश्लेषण
- ‘लोकमंगल’ को साहित्य का लक्ष्य माना
6. शुद्ध साहित्य के पक्षधर – नंददुलारे वाजपेयी और रामविलास शर्मा
वाजपेयी जी
उन्होंने आलोचना में सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण को स्थान दिया। वे मानते थे कि साहित्यकार की वैचारिक प्रतिबद्धता भी कलात्मक होनी चाहिए।
रामविलास शर्मा
मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर हिंदी आलोचना को एक नई दिशा दी। उन्होंने भाषा, संस्कृति और साहित्य को श्रमजीवी जनता से जोड़ा।
उनकी आलोचना विचारधारा से परिपूर्ण होती थी, जिसमें समाज, वर्ग संघर्ष और आर्थिक आधार की प्रमुख भूमिका होती थी।
7. नई आलोचना – 1950 के बाद
नई आलोचना का आगमन पश्चिमी सिद्धांतों और संरचनात्मक विचारों के साथ हुआ। इस दौर में नैमित्तिक आलोचना का विकास हुआ, जो पाठ को केंद्र में रखती थी।
प्रतिनिधि आलोचक:
- नामवर सिंह: उन्होंने ‘कहानी नई कहानी’ और ‘आलोचना की पहली किताब’ जैसी कृतियों से आलोचना को समकालीन विमर्श से जोड़ा।
- कृष्ण बलदेव वैद और नंद किशोर नवल जैसे आलोचकों ने पाठक और पाठ के रिश्ते को पुनर्परिभाषित किया।
8. विमर्श-आधारित आलोचना (उत्तर आधुनिक युग)
1980 के बाद आलोचना का दायरा विस्तृत हुआ और विभिन्न विमर्श जैसे— नारीवाद, दलित साहित्य, आदिवासी विमर्श, उत्तर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण, आदि का समावेश हुआ।
दलित विमर्श:
- आलोचना में अनुभव, सामाजिक यथार्थ और प्रतिरोध की भूमिका बढ़ी।
- ओमप्रकाश वाल्मीकि, शरणकुमार लिंबाले, सूरजपाल चौहान जैसे लेखकों की आत्मकथाएँ आलोचना का विषय बनीं।
नारी विमर्श:
- मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान, तस्लीमा नसरीन जैसी लेखिकाओं की कृतियों ने आलोचना में स्त्री दृष्टि को महत्त्व दिया।
9. मुक्तिबोध और आत्मसंघर्ष की आलोचना
गजानन माधव मुक्तिबोध ने ‘एक्सप्लोरेशन’ की आलोचना की अवधारणा दी। वे मानते थे कि आलोचना केवल मूल्यांकन नहीं, आत्मसंघर्ष का साधन है।
“आलोचना व्यक्ति के भीतर से जन्म लेती है और उसे भीतर ही भीतर तोड़ती है।”
उनकी आलोचना मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद और प्रयोगवाद का सम्मिलन थी।
10. समकालीन आलोचना: डिजिटल युग की चुनौतियाँ
वर्तमान समय में आलोचना डिजिटल माध्यमों पर भी सक्रिय हो गई है। ब्लॉग, सोशल मीडिया, वेब पत्रिकाओं के माध्यम से आलोचना जन-जन तक पहुँच रही है।
- चुनौतियाँ:
- त्वरितता बनाम गहराई
- लोकप्रियता बनाम प्रामाणिकता
- संभावनाएँ:
- बहुस्तरीय विमर्श
- बहुभाषिक आलोचना का विकास
निष्कर्ष
आलोचना की यात्रा शास्त्रों की व्याख्या से आरंभ होकर आज उत्तर-आधुनिक बहसों तक पहुँच गई है। हिंदी आलोचना ने साहित्य को वैचारिक, सौंदर्यात्मक और सामाजिक दृष्टि से समृद्ध किया है। इसका निरंतर विकास यह सिद्ध करता है कि साहित्य केवल मनबहलाव नहीं, बल्कि वैचारिक संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन का औजार भी है।
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FAQs: आलोचना का उद्भव और विकास (aalochana ka udbhav aur vikas)
1. हिंदी में आलोचना की शुरुआत कब मानी जाती है?
आधुनिक आलोचना की शुरुआत भारतेंदु युग से मानी जाती है, लेकिन इसकी जड़ें संस्कृत साहित्य में हैं।
2. आलोचना और समीक्षा में क्या अंतर है?
आलोचना गहन, सैद्धांतिक और दृष्टिकोणात्मक मूल्यांकन होती है, जबकि समीक्षा अधिकतर सामान्य, सूचनात्मक और तात्कालिक होती है।
3. आलोचना का मुख्य उद्देश्य क्या है?
रचना के गूढ़ पक्षों का उद्घाटन, पाठक को मार्गदर्शन देना और साहित्यिक विकास में सहयोग करना।
4. आधुनिक आलोचना में कौन-कौन से विमर्श जुड़े हैं?
नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, उत्तर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण आदि।