विजयदेव नारायण साही हिंदी साहित्य की आलोचना परंपरा के ऐसे प्रमुख स्तंभ हैं जिन्होंने साहित्य के मूल्यांकन को केवल शिल्प या कथ्य तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक विमर्श से जोड़ा। उनकी आलोचनात्मक दृष्टि में गहराई, तर्क, संवेदना और भारतीयता की स्पष्ट झलक मिलती है।
1. आलोचना का दृष्टिकोण: मूल्यांकन नहीं, संवाद
साही की आलोचना किसी रचना का महज़ मूल्यांकन करने की क्रिया नहीं, बल्कि रचना से विचारमूलक संवाद है। वे रचनाकार के भीतर उपस्थित सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक प्रवृत्तियों की पहचान करते हैं।
वे मानते थे कि साहित्य की आलोचना को पाठक और लेखक के बीच सेतु का कार्य करना चाहिए। इसीलिए उनकी आलोचना न तो आरोपित होती है, न दुरूह — बल्कि विचार-प्रधान होती है।
[news_related_post]2. साही और समकालीन आलोचना प्रवृत्तियाँ
जहाँ रामचंद्र शुक्ल की आलोचना इतिहासपरक थी और नामवर सिंह की आलोचना वैचारिक तेवरों से भरी हुई, वहीं साही की आलोचना शैली इन दोनों से भिन्न, संतुलित और गहन थी।
उनकी दृष्टि आलोचना को वैचारिक गहराई और मानवीय संवेदना से जोड़ने वाली थी, जिसमें वाद से अधिक संवाद को महत्व दिया गया। वे न तो मार्क्सवादी थे, न ही सिर्फ सांस्कृतिक राष्ट्रवादी—उनकी आलोचना बहस को जन्म देती थी, निष्कर्ष को नहीं थोपती।
3. भाषा और शैली: विद्वता से सजी सहजता
साही की आलोचना भाषा में प्रौढ़ता, गहराई और स्पष्टता का अद्भुत मेल है। वे जटिल से जटिल विचार को भी सरल, सीधी और प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत करने में सक्षम थे। उदाहरण के लिए, उनका निबंध “कविता की अस्मिता” में कविता की पहचान और उद्देश्य पर गहराई से चर्चा की गई है, लेकिन भाषा एकदम सहज है।
उनकी शैली विश्लेषणात्मक तो है ही, साथ ही पाठक के अंदर उत्सुकता भी जगाती है। यह विशेषता उन्हें अन्य आलोचकों से अलग बनाती है।
4. साहित्यिक मूल्य और सांस्कृतिक चेतना
साही ने साहित्यिक रचनाओं को सांस्कृतिक मूल्यबोध और राष्ट्रीय चेतना के संदर्भ में समझने पर बल दिया। वे मानते थे कि साहित्य केवल कल्पना या सौंदर्य का साधन नहीं है, बल्कि वह समाज की आत्मा का प्रतिबिंब भी है।
उनकी आलोचना में यह प्रश्न अक्सर छाया रहता है:
“यह रचना समाज को क्या देती है?”
इसलिए वे केवल शिल्प या कथ्य की प्रशंसा तक सीमित नहीं रहते, बल्कि रचना की विचारधारा, नैतिकता और सामाजिक सरोकारों पर विशेष बल देते हैं।
5. साही की आलोचना में समकालीनता और परंपरा का संतुलन
साही का आलोचना दृष्टिकोण आधुनिकता के प्रति सजग था, लेकिन साथ ही उन्होंने परंपरा की उपेक्षा नहीं की। वे तुलसी, कबीर, निराला, मुक्तिबोध जैसे कवियों के मूल्यांकन में आधुनिक सोच के साथ पारंपरिक मूल्यों का संतुलन बनाए रखते थे।
उनका मानना था कि परंपरा को केवल अतीत नहीं समझना चाहिए, बल्कि उसे वर्तमान संदर्भों में पुनः जांचना और समझना चाहिए। इसी दृष्टिकोण ने उन्हें आलोचना में नवीनता और गहराई दोनों दी।
6. रचनात्मक आलोचना की अवधारणा
विजयदेव नारायण साही आलोचना को एक रचनात्मक प्रक्रिया मानते थे। वे कहते हैं:
“आलोचना वही सार्थक है जो सृजन के समकक्ष खड़ी हो सके।”
उनकी यह अवधारणा आलोचना को केवल ‘निर्णय देने वाला मंच’ नहीं, बल्कि रचना की सहयात्री बनाती है। उनकी आलोचना लेखन स्वयं एक रचनात्मक कृति होती थी, जिसमें चिंतन, तर्क और सौंदर्य का अद्भुत समावेश होता था।
7. प्रमुख आलोचना कृतियाँ और उनका महत्व
साही की आलोचना-कृतियाँ जैसे:
- “कविता की अस्मिता”
- “स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता”
- “कविता के मानदंड”
- “काव्यप्रतिभा”
इन सभी में कविता की अर्थवत्ता, सामाजिक भूमिका और काव्यशास्त्र पर व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने मुक्तिबोध, अज्ञेय और त्रिलोचन जैसे कवियों पर अत्यंत गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
8. साही की आलोचना दृष्टि की प्रासंगिकता आज
आज के आलोचना परिदृश्य में जब एक ओर वादों का वर्चस्व है, दूसरी ओर व्यक्तिगत पूर्वग्रह, तब साही की संतुलित, तार्किक और मूल्यान्वेषी दृष्टि अत्यंत प्रासंगिक हो जाती है।
उनका चिंतन आज भी साहित्य में स्वतंत्र सोच, विवेक और समन्वय की ज़रूरत की याद दिलाता है।
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FAQs: विजयदेव नारायण साही की आलोचनात्मक दृष्टि पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
Q1: साही की आलोचना में सबसे प्रमुख विशेषता क्या थी?
उत्तर: विचार की गहराई, सादगी से युक्त भाषा, और रचना के साथ संवादात्मक दृष्टिकोण उनकी आलोचना की प्रमुख विशेषता है।
Q2: क्या साही किसी विशेष वाद से जुड़े थे?
उत्तर: नहीं, वे किसी एक वाद से नहीं बंधे थे। उन्होंने स्वतंत्र विचारधारा के साथ समग्रता में रचनाओं का मूल्यांकन किया।
Q3: विजयदेव नारायण साही की भाषा कैसी थी?
उत्तर: साही की भाषा विद्वत्तापूर्ण होने के बावजूद सहज और स्पष्ट थी, जो आम पाठक के लिए भी बोधगम्य थी।
Q4: उनकी आलोचना आज कितनी प्रासंगिक है?
उत्तर: आज भी साहित्य में विवेक, संतुलन और मूल्यान्वेषण के लिए साही की दृष्टि अत्यंत प्रासंगिक है।