नागार्जुन – जनकवि की भाषिक क्रांति
नागार्जुन, हिंदी और मैथिली साहित्य के एक ऐसे विलक्षण कवि रहे हैं जिनकी भाषा आम जनमानस की आवाज़ बनकर उभरी। उनकी कविताओं में न तो भाषाई कृत्रिमता है, न ही सुसंस्कृत अभिजात्यपन। नागार्जुन की काव्य भाषा जनता की चेतना और संघर्षों का आईना है, जो कभी राजनैतिक व्यंग्य में ढलती है तो कभी ग्रामीण जीवन की सादगी में।
1. नागार्जुन की काव्य-भाषा की प्रमुख विशेषताएँ
(क) लोकभाषा की प्रधानता
नागार्जुन ने अपनी कविताओं में खड़ी बोली, मैथिली, अवधी, भोजपुरी जैसी लोकभाषाओं का साहसिक प्रयोग किया। उनकी भाषा आम बोलचाल की भाषा थी, जिसमें कोई आडंबर नहीं था। उदाहरण के लिए, “बाबूजी धीरे चलना” जैसी पंक्तियाँ एक आम नागरिक के चेतावनीभरे स्वभाव को दर्शाती हैं।
(ख) व्यंग्यात्मकता और जनविरोधी ताक़तों पर प्रहार
उनकी भाषा में व्यंग्य एक औजार की तरह है। सत्ता, प्रशासन और पूंजीवाद पर तीखे प्रहार उनकी भाषा को धारदार बनाते हैं। उनकी व्यंग्यपूर्ण शैली ने उन्हें ‘जनकवि’ का सम्मान दिलाया। कविता “हारा हुआ आदमी” में उन्होंने समाज के हाशिए पर खड़े व्यक्ति की व्यथा को निर्भीकता से उकेरा।
[news_related_post](ग) प्रतीकात्मकता और मिथकों का पुनर्पाठ
नागार्जुन ने पौराणिक मिथकों का आधुनिक संदर्भों में पुनर्पाठ किया। उनकी भाषा में राम, रावण, यक्ष जैसे पात्र जनसरोकारों से जुड़ जाते हैं। यह शैली उन्हें एक ऐसा कवि बनाती है जो परंपरा का विरोध नहीं करता, बल्कि उसे जनता के पक्ष में पुनर्परिभाषित करता है।
2. राजनीतिक चेतना और भाषा का साहसिक प्रयोग
नागार्जुन की भाषा जनांदोलनों और राजनीति की उपज रही है। आपातकाल के समय लिखी गई कविताएँ जैसे “इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको?” सीधे-सीधे सत्ता को चुनौती देती हैं। इस प्रकार उनकी भाषा ‘अकविता’ नहीं, बल्कि ‘जनकविता’ बनती है, जिसमें असहमति और प्रतिरोध की स्पष्ट झलक मिलती है।
3. नागार्जुन की भाषा में छंद और लय का लोकतंत्र
उनकी कविता में छंद और लय का प्रयोग पारंपरिक रूपों में तो मिलता ही है, लेकिन वे उसे जनभाषा के अनुसार ढालते हैं। छंद कभी-कभी टूटते हैं, लय भंग होती है, लेकिन वही टूटन भाषा को जीवन के और पास ले जाती है। उदाहरण के लिए:
“अकाल और उसके बाद”
“लोग भूख से बिलबिला रहे थे,
और संसद में बहस चल रही थी –
किसे दोष दें: ईश्वर को या किसान को?”
इसमें न कोई अलंकार है, न कोई भव्यता—फिर भी पाठक के हृदय में चुभने वाली सच्चाई है।
4. नागार्जुन और ग्रामीण जनजीवन
नागार्जुन की भाषा ग्रामीण जीवन की सच्चाइयों को उसकी मूल बोली में प्रस्तुत करती है। उनकी कविता ‘बलचनमा’ एक ऐसा उदाहरण है जिसमें किसान की ज़िंदगी, दुःख-दर्द, श्रम और उम्मीद को उस भाषा में प्रस्तुत किया गया है जिसमें वह सोचता और बोलता है। नागार्जुन ने किसान, मज़दूर, स्त्री, और दलित के अनुभवों को कविता की मुख्यधारा में लाकर भाषा की सीमाओं को तोड़ा।
5. नागार्जुन की काव्य-भाषा का समकालीन महत्व
आज जब कविता अक्सर शहरी बौद्धिक विमर्शों में सिमटती जा रही है, नागार्जुन की भाषा हमें याद दिलाती है कि साहित्य का पहला धर्म जनता से जुड़ाव है। उनकी भाषा आज भी आंदोलनों, जनविरोधी नीतियों और सामाजिक असमानताओं के खिलाफ आवाज़ बनने की क्षमता रखती है।
6. तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य: नागार्जुन बनाम अन्य प्रगतिशील कवि
यद्यपि नागार्जुन का लेखन फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ और मुक्तिबोध जैसे समकालीनों से प्रेरित रहा, उनकी भाषा कहीं अधिक मौलिक, जनसंचारी और विद्रोही रही। जहाँ मुक्तिबोध की भाषा जटिल और आत्मसंघर्षमय है, वहीं नागार्जुन की भाषा सरल, सजीव और तीव्र प्रभाव वाली है।
7. निष्कर्ष: नागार्जुन की भाषा एक जनसंघर्ष का दस्तावेज़
नागार्जुन की काव्य-भाषा केवल भाषिक प्रयोग नहीं है, वह एक आंदोलन है—साहित्य में जनता की वापसी का आंदोलन। उनकी भाषा में क्रांति है, करुणा है, हास्य है, और सबसे महत्वपूर्ण—सच है।
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FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
Q1. नागार्जुन की काव्य-भाषा में लोकभाषाओं का क्या महत्व है?
उत्तर: नागार्जुन की भाषा में लोकभाषाएं कवि और जनसामान्य के बीच पुल का काम करती हैं। इससे कविता अधिक प्रभावशाली और सजीव बनती है।
Q2. क्या नागार्जुन की भाषा राजनीतिक थी?
उत्तर: हाँ, उनकी भाषा में स्पष्ट राजनीतिक चेतना है। वे सत्ता के विरुद्ध आमजन की आवाज़ बनते हैं।
Q3. क्या नागार्जुन छंद और अलंकार का प्रयोग करते थे?
उत्तर: करते थे, लेकिन पारंपरिक नियमों से बंधे नहीं थे। उन्होंने छंद को जनभाषा के लय में ढाला।
Q4. नागार्जुन की कविता आज कितनी प्रासंगिक है?
उत्तर: अत्यंत प्रासंगिक। आज के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में उनकी भाषा एक सशक्त प्रतिरोध बन सकती है।