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विद्यापति की भक्ति भावना

विद्यापति की भक्ति भावना
विद्यापति की भक्ति भावना

  विद्यापति की भक्ति भावना

भारतीय साहित्य की भक्ति परंपरा में विद्यापति एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। विद्यापति मैथिली साहित्य के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं। इनका जन्म मिथिला क्षेत्र के मधुबनी जिले के बिस्फी नामक गाँव में हुआ था। विद्यापति (1352-1448 ई.) भक्ति आंदोलन के अग्रणी कवि के रूप में विख्यात हैं। विद्यापति के काव्य में भक्ति का स्वरूप प्रेममयी है, जिसमें लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक ईश्वर प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। विद्यापति की भक्ति भावना की महत्ता इसी में निहित है कि इनके पदों में ईश्वर की भक्ति मानवीय अनुभूतियों के रूप में सहज ही उतर आती है।

विद्यापति का युगीन संदर्भ

विद्यापति का समय चौदहवीं शताब्दी के अंत और पंद्रहवीं शताब्दी के आरंभ का था, जब समस्त भारत में भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था। इसी दौर में उत्तर भारत में रामानंद, कबीर, सूरदास और तुलसीदास जैसे कवियों के साथ-साथ पूर्वी भारत (मिथिला, बंगाल, असम) में विद्यापति और चैतन्य महाप्रभु का प्रभाव फैला। विद्यापति के पूर्व वैष्णव भक्ति परंपरा का केंद्र उत्तर भारत रहा था, परंतु विद्यापति ने इसे मिथिला क्षेत्र में स्थापित किया। विद्यापति की भक्ति परंपरा के मुख्य आराध्य श्रीकृष्ण थे, जो राधा के साथ प्रेम की लीलाओं में लीन हैं।

विद्यापति की भक्ति भावना का स्वरूप

विद्यापति की भक्ति भावना में माधुर्य भाव प्रधान है। माधुर्य भक्ति कृष्ण और राधा के प्रेम के माध्यम से ईश्वर के प्रति मानव की आत्मा के सहज आकर्षण को अभिव्यक्त करती है। इस भक्ति में ईश्वर सखा, प्रियतम और मित्र के रूप में प्रकट होते हैं। विद्यापति के काव्य की विशेषता यही है कि वे भगवान कृष्ण को अत्यंत सरलता एवं सहजता से प्रेम के माध्यम से उपस्थित कर देते हैं। उनके पदों में लौकिक प्रेम और आध्यात्मिक प्रेम एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं।

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प्रेम और भक्ति की एकात्मता

विद्यापति के पदों में लौकिक प्रेम और दिव्य प्रेम का अद्भुत सामंजस्य मिलता है। वे कहते हैं कि प्रेम की जो तीव्रता सामान्य व्यक्ति के प्रेम में होती है, वही तीव्रता ईश्वर प्रेम में आवश्यक है। विद्यापति के अनुसार प्रेम की पूर्णता भक्ति की पूर्णता है। राधा और कृष्ण के प्रेम को वे भक्ति का सर्वोच्च उदाहरण मानते हैं। प्रेमी-प्रेमिका के संवाद के माध्यम से विद्यापति लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक भक्ति के रहस्यों को प्रकट करते हैं।

विद्यापति के पदों में राधा की विरह व्यथा, कृष्ण से मिलन की उत्कंठा तथा प्रेम के विभिन्न चरणों का अत्यंत मार्मिक चित्रण मिलता है। विद्यापति कहते हैं—

“की कहब सखि, आजुक गमना
कानु हरि मोर अँगना।”

इस प्रकार पदों में प्रेमिका (राधा) अपनी सखी से कृष्ण के प्रति अपनी प्रीति का वर्णन करती हैं। यह संवाद भक्ति का ही स्वरूप है जिसमें ईश्वर को प्रेमी के रूप में स्वीकार कर आत्मा उनसे एकत्व स्थापित करती है।

विद्यापति के पदों में भक्ति के विविध रूप

विद्यापति ने केवल कृष्ण की प्रेम-लीला को ही नहीं, बल्कि कृष्ण के सौंदर्य, उनके गुणों, उनकी बाललीला, और उनकी माधुर्य भरी क्रीड़ाओं का विस्तृत वर्णन किया है। विद्यापति के पदों में कृष्ण का सौंदर्य आध्यात्मिक प्रतीकों से युक्त है। वे भगवान कृष्ण को अलौकिक सौंदर्य से युक्त एक आदर्श प्रेमी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। विद्यापति का एक प्रसिद्ध पद है:

“माधव तुअ संग की भेल करूँ
जुग जुग जीवहुँ, अमर न मरूँ।”

यहाँ माधव के प्रति सदा के लिए प्रेम में समर्पित होने की इच्छा ही भक्ति का चरम बिंदु है। विद्यापति प्रेम और भक्ति के भावों का प्रयोग कर मानव हृदय में बसे ईश्वर को दिखाते हैं।

विद्यापति की भक्ति भावना में विरह और मिलन दोनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। राधा के कृष्ण से वियोग की पीड़ा को भक्ति भावना के गहरे अनुभव के रूप में चित्रित किया गया है। राधा का विरह एक भक्त के ईश्वर के लिए तरसने के भाव को स्पष्ट करता है। जब राधा कृष्ण के विरह में दुःखी होती हैं, तब यह मानव आत्मा के ईश्वर के प्रति तरसने की अवस्था है। कृष्ण के प्रति राधा का प्रेम पूर्णतः समर्पित है, जिसमें भक्त ईश्वर के बिना अपने जीवन को व्यर्थ समझता है।

लोक जीवन से जुड़ी भक्ति भावना

विद्यापति की भक्ति भावना इसलिए भी विशिष्ट है क्योंकि इसमें लोक जीवन के चित्र उभर कर आते हैं। वे भक्ति को अत्यंत जटिल दर्शन के स्थान पर सहज रूप में प्रस्तुत करते हैं। विद्यापति के पदों में मिथिला के लोक जीवन की छवि साफ झलकती है। उनकी भक्ति लोक जीवन की भक्ति है, जिसमें किसान, ग्रामीण स्त्रियाँ, युवा प्रेमी-प्रेमिकाएँ कृष्ण को अपने मध्य में महसूस करते हैं। वे कृष्ण को एक सुलभ देव के रूप में स्थापित करते हैं।

विद्यापति की भक्ति और चैतन्य महाप्रभु का प्रभाव

विद्यापति की भक्ति भावना से प्रभावित होकर चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति आंदोलन का विस्तार बंगाल, उड़ीसा और असम तक किया। चैतन्य महाप्रभु की गौड़ीय वैष्णव परंपरा में भी विद्यापति के पदों की विशेष महत्ता है। विद्यापति के भक्ति पद आज भी चैतन्य परंपरा में गाये जाते हैं।

उपसंहार

विद्यापति की भक्ति भावना में प्रेम, सौंदर्य, माधुर्य और भावनात्मक गहराई की प्रधानता है। उन्होंने भक्ति भावना को इतना सरल और सहज बना दिया कि यह जन-जन तक पहुँच सकी। विद्यापति की भक्ति में ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता प्रेम और समर्पण का है, जो लोक जीवन के यथार्थ को भक्ति के आध्यात्मिक सत्य के साथ जोड़ता है। विद्यापति ने भक्ति को जीवन का सहज हिस्सा बना दिया, इसीलिए उनकी भक्ति भावना भारतीय साहित्य के इतिहास में एक अमूल्य स्थान रखती है।

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